Travelogue


This is strange phenomena that poor run to cities to earn more and to get better life, but Rich run back to countryside to get pure air, and peace. This practice was common in Munich also, when the rich city people build houses for the summer near lake side to spend their summer hot months. A large village name Feldafing, is near the lake Starnberg Lake, this was the place where most of the rich people of Munich like bankers, Artists Businessmen had built the summer villas. Even Bavarian King Maxmilian II had plane to build a castle in this place, which was never built , but his garden architect build a rose garden in a island of the lake. Fildafing was a reachable natural place for the city people of Munich fromm 1864 onwards, as it is near to Tutsing. So this place was liked by people to make villas.

One of the beautiful building is called Villa Waldbreta   was built in 1899 by a banker and writer Bernhard Schuler,  which was occupied by different people in different time like banker, a Dutch publisher, a paper manufacturer, a German –American couple and a sport administrator.

From very begging this Villa was the home for artist. Villa had received the political guest also, and at the time of Olympic Villa had guest like French President Georges Pompidou, Henry Kissinger, and British Prime Minister Edward Heath.

Bernhard Schuler, the builder of Villa Walbreta was a man of many talents, He was writer also, and had relation with many important people of Bavaria Kingdom.

After his death, the Villa was sold to a successful publisher from Netherlands, name Albertus Willem Sijthoff. After buying Villa , he decorate it with artistic furniture.  Most of the furniture are still there in the Villa.  He also change the name of the Villa from Felsenheim to Walbert. This villa was hub of art and culture, from starting a painter, a violinist and a sculptor lived with the family along with many servents. Graduay it became a culture center. After  Sijthoff’s  death, his wife Waldine  lived for  some time,, at the time of great war in they got a buyer name Carl Hugo Schmeil, , and his time in Villa is not mentioned anywhere, he was owner from 1917 to 1925.

In 1025 the villa was bought by American Couple Franz and Bertha, both had German origin.

In Nazi time, Villa was handed to Fielding Hospital; than it was given to German Arm force From 1945 to 1953 it became the camp of Displaced person in Feldafing

In 1953 Bertha Koempel retuned to Vila, and restores it. She was keeping it from 1953 to 1966.

In 1966, Villa became the part of property of Munich local government. Since 1982, Villa became an artist residence for international guest. And purpose is to foster the arts and culture.

 

 

अस्मिता की लड़ाई और भाषाई भूमिका,

 

वैल्श से ज्यादा कौन सिखा सकता है।

 

12,मार्च 2913, मै लण्डन होते हुए कार्डिफ आ पहुँची हूं, कार्डिफ जो कि वैल्श की राजधानी है, और वैल्श वह एक मात्र राज्य जो आज के युग में भी, अंग्रेजी के एकदम करीब होते हुए भी अपनी भाषा को दृढ़ता से सम्भाले हुए है।

यूरोपीय प्रान्त वैसे भी खूबसूरत होते हैं, लेकिन मुझ भीड़भड़क्के के आदि को सोये सोये लगते हैं।

कार्डिफ कुछ अलग सा लगता है, यहाँ लोगों के चेहरों पर मुस्कान दिखाई देती है। हवाई अड्डे से बस की यात्रा बेहद आरामदायक रही। बस बेहद आरामदायक है, और हवाई यात्रा की तरह सुरक्षा आदि के प्रति सजग है। बिना बेल्ट लगाये बस में बैठना मना है। बस के भीतर ही हवाई जहाज के तर्ज पर शौचालय भी।

शहर में प्रवेश रात के वक्त होता है, यह यूरोप है अमेरिका नहीं। दूकानें छह बजे ही बन्द हो जाती हैं। शाम का वक्त मात्र उनका होता है जो पबों में जाकर आनन्द उठाना चाहते हों।

इस वर्ष पिछले ७८ वर्षों का रिकार्ड टूट गया है सर्दी में। बस के भीतर या घर के भीतर सब ठीक है, लेकिन बाहर निकलते ही सर्द हवाएँ बर्छी सी चुभती हैं। मैंने सालों से सर्दी का मजा ही नहीं लिया, और अब सर्दी वास्ता पड़ा तो इतना जबरदस्त।

फिर भी मैं घर से बाहर निकलना चाहती हूँ, और करीब के पहाड़ों को देखना चाहती हूँ।

 

मुझे पता नहीं कि कितने देशों में पब्लिक लाइब्रेरी लोगों के लिये मुफ्त में किताबें देती है, मैंने पढ़ाई के दिनों में भी किताबों के बीच से पन्ने गायब देखें है, लेकिन यहाँ पब्लिक लाइब्रेरी है, बेहद साफ सुथरी, सुन्दर जिसमें बच्चों के लिये अलग विभाग है। मैं लाइब्रेरी में घूम घूम कर किताबें देखती हूँ। अधिकतर कहानी और उपन्यास हैं, लेकिन वैल्श के इतिहास और नगरों के इतिहास और संस्कृति की जानकारी वाली किताबों की भी कमी नहीं….

पुस्तकालय का इंतजाम सरकार की जिम्मेदारी होती है, और उसके नियमों का पालन जनता की। यह काम कार्डिफ में दिखाई दे रहा है। काश हमारे देश के सार्वजनिक पुस्तकालय भी इसी तरह देखे रखे जाते।

करीब ही जिम है, यह भी सरकारी है। बेहद मामूली सी फीस दे कर इसका लाभ उठाया जा सकता है। मैं जिम के भीतर देखती हूँ, हमारे देश के पाँच सितारा जिम की तरह बेहद साफ सुथरी और सुन्दर जिम है, जिसमें हर आयु वर्ग लोग व्यायाम कर रहे हैं। स्वास्थ्य लोगों का ही नहीं देश का भी धन है, और इसके प्रति इतनी जागरुकता समझी जा सकती है। एक बात खलती है कि यहाँ भी अमेरिकन फूड एजेन्सियों ने पाँव जमा लिये है, मैक्डोनल , सब वे कोस्टा पाँव जमाये बैठे हैं।

 

मैं ठण्डी हवाओं की चुभन बर्दाश्त नहीं कर पा रही हूँ। देश से लाये दो स्वेटर और और एक चेस्टर हवा को रोक नहीं पा रहे हैं, उंगलियाँ सुन्न हो रही है, मैं करीब के माल में घुस कर कुछ गरम कपड़े तलाशती हूँ, लेकिन वाह भाई वाह , दूकानदारी के नियम के अनुसार बसन्त आ गया गया है तो सारे कपड़े बसन्तकालीन है….. बस एक ही तरीका है बस का इंतजार कर सीधे घर जाऊँ….

 

यूरोपीय बसे गर्म और आरामदायक हैं, छात्रों और वृद्धों के अलावा मैंने किसी को देखा नहीं, बस में घुसते ही ड्राइवर हय्या यानी कि हाय कहता है, कण्डक्टर की जरूरत नहीं, घुसते ही पैसा दीजिये, टिकिट लिजिये और उतरते वक्त ड्राइवर को धन्य

वाद देना ना भूले, नहीं तो बदतमीजी समझी जायेगी। इन साम्राज्यवादी देशों में श्रम की महत्ता जिस तरह से आँकी जाती है, साम्यवादियों के लिये सीखने की चीज है। लम्बी रूट की बसों में ड्राइवर ही सामान डिक्की के भीतर भी रखता है ।

 

लेकिन किराया…. इतना ऊँचा कि यदि सर्दी कम होती तो मैं पैदल चलना बेहतर समझती, सोचिये कि कुछ किलोमीटर के लिये चार पौण्ड यानी कि रुपये देना पड़े तो हम भारतीय बस में जायेंगे, यहाँ तो महिने भर की गैस का सिलेण्डर ४०० से ८०० हो जाये तो हाय तौबा मच जाये।

मैं अपने दीमाग को समझाती हूँ, भई एक पौण्ड को एक रुप्पया ही समझो, यह क्या झट से गुणा भाग में लग डरा देते हो। बस यह तरीका कुछ कामगार लगता है।

 

बस से दिखते घर, बाजार आदि, ना जाने कैसे एक स्ट्रीट के सभी घरों का चेहरा मोहरा एक सा क्यों है? लेकिन लगते कितने खूबसूरत हैं,,,,,, गुड़िया के घरों जैसे छोटे छोटे खूबसूरत….. इतना प्राकृतिक असन्तुलन भी इनके चेहरों को क्यों नहीं बिगाड़ पाता। इसलिये कि इनके वासी अपने देह वाद के प्रति सजग हैं, किसी भी इमारत का पुरानापन यहाँ महत्वपूर्ण माना जाता है, घरों को बाहर और भीतर से सजाये रखना जिन्दगी का चलन है।

कहा जाता है कि 54 य 55 ईसा पूर्व ने रोमनों ने खास तौर से जूलियस सीजर ने एक ऐसे द्वीप का उल्लेख किया है, जो दूध औेर माँस पर निर्भर रहते हैं, खाल पहनते हैं, और अपने चेहरे को नीले रंग से पोतते हैं। दरअसल अनाज औकाम वाद मन अपनी महानता को जताने के लिये अधिकतर यूरोपीय आदिवासियों को किसी ना किसी तरह निम्नतर बताने का काम करते थे। रोमनों ने इन द्वीपों को लम्बे लाभ का विषय बनाने के लिये यहाँ किले खड़े किये ार छिपी प्राकृतिक संपदा को पहचाना। रोमन आये, आदिवासियों को जंगलों में खदेड़ते हुए यहाँ की सम्पदा को हथियाने का कार्यक्रम बनाने लगे। उस वक्त इस द्वीप में प्रमुख रूप से तीन जनजातियाँ थीं, दक्षिण पूर्व में युद्ध प्रेमी Silures, दक्षिण पश्चिम मेंस शान्तिप्रिय Demetae, और मध्य और उत्तर में Deceangli और cornovii . इनकी भाषाएँ केल्टिक परिवार की थीं। रोमनों ने सैनिक छावनियों के लिये किलों का निर्माण और लोह और कोयले आदि खनिजों कों ढ़ोकर अपने देश ले ैजाने के लिये सड़के , पुल और बन्दरगाह बनाने शुरु किये। ब्रिटनों में से अधिकतर रोमन सेना के हिस्से बन गये, कुछ ब्रिटन रोम में जाकर लेटिन आदि सीख कर अपने साथ ब्रिट्न भाषा के में लेटिन शब्द ले आये,,,,

लेकिन वेल्श के आदिवासी अपनी केल्टिक भाषा से जुड़े रहे और अपनी जीवन शैली में शान्तिप्रिय होने के कारण प्रकृति से जुड़े रहे। रोमनों का ध्यान मात्र प्राकृतिक सम्पदा ढ़ो कर ले जाने में था। लेकिन जब रोमन का शासन सुस्त पड़ा तो पुनः

कबिलों के योद्धाओं ने बागडोर सम्भाली।

 

वेल्स की अपनी कोई प्राकृतिक सीमारेखा नहीं थी, अतः वे ब्रिटनी कबिलों के द्वारा शासित किये जाते रहे, जब जर्मन भाषी सेक्सन ब्रिटनों मे राज्य करने आये तो उन्होंने इन शान्तिप्रिय आदिवासियों को वेल्श नाम से पुकारा, वेल्श का मतलब है.. अजीबोगरीब strangers हालांकि वेल्स के लोग अपने को ब्रिटन ही मानते रहे, लेकिन यह अजीबोगरब नाम वेल्श लोगों के साथ चिपक कर रह गया। आज भी ब्रिटेनवासी वेल्श लोगो को मसखरा, मुर्ख और आलसी मानते हैं, संभवतया उनके लोक से जुड़े जीवन के कारण। किसी वैल्श, से बात करना आसान हैं बनिस्पत कि अंग्रेज के। ये भारतीयों की तरह अपरिचितों को देख कर मुस्कुराते हैं, बातें भी करते हैं, और गले मिलना, सार्वजनिक चुम्बन आदि से परहेज करते हैं।

 

यूरोपीय देश भारतीय राज्यों की तरह हैं जिनका आपस में कोई ना कोई सम्बन्ध है। इसलिये इन्हें पूरी तरह से अलग करना कठिन ही है। आपसी युद्ध ‌और धार्मिक प्रभाव यूरोपीय देशों की गाथाओं में है, ब्रिटेन के क्षेत्र से ईसाईधर्म के प्रासार में भी लोकधर्मिता का प्रभाव पड़ा, जिससे एक ही धर्म के विविधता और स्थानीयता आ गई। वेल्स के चर्चों में अन्य यूरोपीय चर्चों से भिन्न आाचार प्रचलित हुए। इसी जद्दोजहद के उपरान्त जो भाषाएँ निकल कर आईँ, वे थीं. Welsh. cornish और Breton।वेल्स भाषा अपने मूल के काफी निकट थी। वेल्श लोगों ने अपने लिये अपना नया नामकरण किया Cymry यानी की एक स्थान के लोग।

वेल्श राज्य अपने राजा थे, लेकिन अधिकतर उन्हें इंगलिश राजाओं के अधीन रहना पड़ा। वेल्श भाषा को आज यूरोप की प्राचीमनतम जीवित भाषा का दर्जा दिया जाता है, हालांकि कि समयानुसार इसमें अन्य यूरोपीय भाषाओं का प्रभाव पड़ता रहा। वेल्श का राजकीय इतिहास उठापटक का इतिहास रहा। कहा जाता है कि वेल्स अंग्रेजों की पहली कालोनी थी। लेकिन आज भी वैल्श भाषा विश्व की उन गिनी चुनी भाषाओं में मानी जाती है, जिनका उपयोग आधुनिक काल में बढ़ा है, घटा

नहीं, जिसने अपनी अस्मिता की लड़ाई भाषा को मुद्दा बना कर लड़ी है, जिसने अंग्रेजी के बगल में रहते हुए उसे चुनौटी दी है। आज वैल्श में सोलह साल की आयु तक अपनी भाषा पढ़ना आवश्यक है, और आज वैल्श भाषा का साहित्य किसी भी साहित्य के टक्कर लेने को तैयार है।

 

यूरोप का करीब करीब पूरा इतिहास युद्ध लिखा गया है, और युद्ध की यादगारें हैं किले। बचपन चितौड़गढ़ के किले के नीचे पनपा, लेकिन उस वक्त यह किला स्वतन्त्रता और गरिमा की मिसाल लगता था सैनिक छावनी नहीं। चित्तौड़गढ़ का किला जहाँ महाराणा प्रताप के शौर्य को बखान करता था तो वही पद्मिनी के सौन्दर्य को भी। वहाँ मीरा के भजनों की लहरियाँ गूंजी तो महान जौहर की राख भी उड़ी। संभवतया किसानों को छोड़ कर सारा जनजीवन किले में समाहित लगा। लेकिन यहाँ के अधिकतर किले सैनिक छावनियों के प्रतिरूप रहे। जब रोमन आये तो उन्होने किले बनाये अपनी बची हुई सेना के लिये, पहले पहल किले लकड़ी के होते थे , लेकिन जब छुटपुट युद्धों के उपरान्त उन्हें जलाया जाने लगा तो पत्थर के बनाये जाने लगे। आरम्भ में ये मात्र सैनिक चौकी का काम करते थे। यानी कि जब किसी प्रदेश पर चढ़ाई की जाती तो एक सैन्य अधिकारी के साथ सैनिकों को किले में छोड़ दिया जाता, जिससे वे लगान वसूली के साथ साथ उस प्रदेश की सम्पदा को विजित शासक के पास पहुँचाते रहे। ये किले ही दमन के दर्शक होते थे, जहाँ अपने देश से बिछुड़े सैनिक अपनी दमित भावनाओं को दमन से जागृत करने की कोशिश करते रहते। जब कभी दमित जन भी इन किलों को जीतने की कोशिश में रहते। यानी कि ये किले भावनात्मक स्वतन्त्रता के प्रतीक थे। लेकिन शनैः शनैः किले शासकीय शान के प्रतीक बनते गये और शासक स्वयं अपन प्रदेश में किले बनाने लगे। किलों का आरामगार के रूप में उपयोग इसके बाद की स्थिति है जो आजतक जारी है। आज भी ब्रिट्रेन की महारानी वर्ष में दो महिने के लिये स्काटलैण्ड के किले में आराम करने जाती हैं।

 

१९ मार्च २०१३

कार्डिफ में सबसे पहले मैं कैफिली किले ( Caerphilly Castle ) की सैर करने जाती हू। अब तो इसे सैर ही कहना चाहिये, नहीं तो जिस तरह की कठोरता इस भग्नावेश में दिखाई देती है, वह सैरगाह शब्द के लिये उचित नहीं दीखता। कफिली किला बूढ़े दैत्य की तरह है जो अपने टूटे दाँतों के बावजूद अपनी शान को रखे रहना चाहता है। अजीब सी ठण्ड है, सीलन भरी, कड़कड़ाती सूखी ठण्ड से तो निपटा जा सकता है, लेकिन ये बरसाती ठण्ड जान निकाल लेती है। टैक्सी हमें किले के पिछवाड़े छोड़ कर चली जाती है। Rhymney Valley की तलहटी में Rhymney नदी से के करीब बने इस किले में घुसने से पहले अपने आप को तैयार करना बेहद कठिन काम लगा। नदी पर खूबसूरत बतखें तैर रही थी, चित्रलिखित सा चित्र, लेकिन चित्र सर्दी को नहीं दिखा सकता, और यहाँ दाँत क्या हाड़ भी कंपकंपा उठे। ये बतखे जैसे जीव तो मानों किले के सैनिकों की आत्माएँ हैं, क्वैक क्वैक करती चली आ रही हैं, लगता है कि अब चोंच मार कर हाथ का सामान छीन लेंगी, अपने मन्दिरवासी बन्दरों की तरह। किले की गुम्बदों में से एक ऊपर से खुल कर काफी झुक गई है, जो अपने आप में अदभुत नजारा पेश करती है।

 

जब हम किलों की बात करते हैं तो उन शासकों की बात करते हैं, जिन्होंने इन्हें खड़ा किया, उन विजेताओं को याद करते हैं, जिनकें पास जीत का तमगा था। लेकिन उन मजदूरों की बात नहीं करते, जिन्होंने पत्थर तराशे, और मीनारों पर चढ़ाये। आम सैनिक और आमजन से तो दासों सा व्यवहार होता रहा होगा। बाद में मैंने स्काटलैण्ड के एक म्यूजियम में नोट पढ़ा था कि स्काटिश सैनिकों को पौशाक बनाने के लिये सालाना एक पौण्ड मिला करता था, जिसे भी नगर सेठ दिया करते थे। इससे वर्ष में एक पौशाक मुश्किल से बन पाती, अधिकतर कोट फटने के बाद कोटी बना ली जाती। स्थिति इतनी बदतर होती गई कि जब उनका अपना साथी युद्ध में धाराशाही होता तो अपने ही सैनिक जल्द से जल्द उसके कपड़े उतार साथी की लाश नंगी छोड़ देते। तो सोचिये कि उन लोगों का क्या हाल होता होगा जिनसे बेगार लिया जाता है? निसन्देह इन किलों को बनाने के लिये स्थानीय बन्दी सैनिकों और आम जनों का सहयोग लिया जाता होगा, जो किले की किसी भी दीवार पर अंकित नहीं है।

हम लोग अपने को गर्माने के लिये सिटी सेन्टर की ओर जाते हैं, जहाँ पर पर्यटक केन्द्र है। यहाँ काफी चाय आदि के साथ पर्यटन सम्बन्धी सूचनाएँ भी प्राप्त की जाती हैं। गर्मी आते ही हम किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ते हैं। यह किला भी

Anglo-Norman शासक 1263, Gilbert de Clare, जिसे “Red Gibert” भी कहा जाता है , द्वारा बनवाया गया है। उसका प्रबल विरोधी अन्तिम वेल्श शासक Llywelyn the Last था, जिसने वेल्श की स्वतन्त्रता के लिये और बेहद मेहनत की। Llweyln को इंगलैण्ड की civil war का कारण भी माना जाता है।

30 एकड़ के भूभाग में फैले, अप्राकृतिक झील से घिरे किले की बाहरी दीवारें इतनीं मजबूत और ऊँची है कि यह सोचना भी कठिन लगता है कि तलवार भालों के युग में इस किले पर कोई चढ़ाई की बात भी सोच सकता है. लेकिन Llywelyn और बागी स्थानियों के कारण यह किला पूर्ण सुरक्षित कभी नहीं रह पाया। इसके निमार्ण के दौरान ही इसकी प्रमुख भाग को Llywelyn और बागियों द्वारा जला दिया गया था। बाद की सदियों में भी किले पर आक्रमण होते रहे, और आज यह जर्जर किला बूढ़े थके शेर की तरह दीखावटी वस्तु बन गया है, जिसके खूनी दीवारों पर सौन्दर्य और कला की बाते होती है।

किले के प्रमूख द्वार के बाहर कृत्रिम झील के ऊपर से दो पुल हैं, जो संमभवतया युद्ध के वक्त नष्ट कर दिये जाते होंगे। आयताकार किले की अभेद्य दीवारों को दुगुनी सुरक्षा प्रदान करने के लिये पोल खड़े किये गये हैं जो भीतरी सैन्य चौकी का काम करते हैं। तहदार दीवारें, सुरक्षा छिद्र जिनमें से शत्रुओं पर गोले बरसाये जाते हैं, और रस्सी और चकरी का वैज्ञानिक उपयोग, जिससे किले के फाटक बन्द किये या खोले जा सकें।

किले का प्रमुख कक्ष great hall जो कभी चैपल भी रहा था, आज भी आकर्षक है। इसमें बारहवीं सदी की भोज मेज और कुर्सियाँ लगी हैं, और दीवारों पर आयुध लगे हैं, आज कल विवाह आदि के लिये किराये पर दिये जाते है। खूनी अक्षरों पर प्रेम के कितने आखर खुद पाते हैं, पता नहीं, लेकिन व्यापारीकरण का अच्छा नमूना है। मैं पोली दीवारों के भीतर की सीढ़ियों पर चढ़ती हूँ, डर सा लगता है, ना जाने कितनी आत्माएँ चुपकी पड़ी होंगी इन अंधेरी दीवारों में। ये सीढ़ियाँ पोल की ओर गुप्त मार्ग हैं, जो सैनिकों द्वारा उपयोग में लाये जाते होंगे। दूसरी तरफ की सीढ़ी घुमावदार रास्ते से पोल की छत पर चढ़ जाती हैं, मैं उस पर भी चलने का मन बनाती हूँ, आजकल मात्र यह पोल सुरक्षित माना जाता है। गोल गोल घूमते जब मैं ऊपर पहुँचती हूँ तो लगता है कि नगर की छत पर हूँ। पूरा नगर बेहद खुबसूरत दिखाई दे रहा है,….. पोल के ऊपर की खपरेले पत्थर की बनी लग रही हैं, टेरेकोटा का प्रचलन शायद बाद में आया होगा। छत पर मात्र एक परिवार है, पिता जो बढ़िया कैमरे से फोटो में व्यस्त है, एक चार पाँच साल की लड़की लगातार रो रही है, और माँ समझ नहीं पा रही कि नजारे देखे या बच्ची को बहलाये। संभवतया बच्ची ऊँचाई से डर रही होगी, लेकिन पिता की एकाग्रता देखते बनती है। मैं गुम्बद की आखिरी सीढ़ियों तक पहुँचती हूँ, लेकिन तुरन्त उतरने का मन बना लेती हूँ,,,,,ये मोटी मोटी दीवारें मुझे शासकों का नहीं दासों के दर्द से लिखी लकीरे लगती है, उनके दर्द को कितना सह सकती हूँ मैं?

एक पोल ऊपर से खिल कर एक तरफ झुक गया है, कहते हैं कि पीसा की इमारत से भी ज्यादा झुकाव है, इस खण्डित पोल का,,,,,, बाहर दालान में वे आयुध रखे हैं, जिनका यूरोपीयों ने उपयोग किया, सामान्य विज्ञान के सामान्य से नियम चकरी, गिल्ली आदि से चलने वाली तोपें, और अन्य प्रपेक्षास्त्र हैं, जिनका उपयोग किले के भीतर से पत्थर और तीर बरसाकर शत्रुओं से बचाव करना होता होगा।

यह पर्यटकों के लिये प्रिय समय नहीं है, अतः किला खासा भुतहा लग रहा है, दीवारें कितनी भी मोटी बना ली जाये, टूटती ही हैं, ऊँचाई कितनी भी उठा ली जाये गिरती जरूर है, कलरव को सन्नाटे में बदलता वक्त किले में थक कर आराम करता सा जान पड़ रहा हैं, किला हवा को जरूर रोक रहा है, लेकिन सर्द स्मृतियों को नहीं।

किला अच्छा है, लेकिन उन यादों के लिये खूबसूरत शब्द का प्रयोंग कैसे करूँ, जो खूनी दास्तान कहती हैं, शाम के साथ सर्द हवाएँ तेज हो जाती हैं,

हम पास की माल में घुस कर टैक्सी का इंतजार करते हैं,

लौटते वक्त मेरे झोली के सारे शब्द सन्नाये पड़े हैं,,,,,,

 

२० मार्च, २०१३

 

आज तड़के ही कमारथन के लिये गाड़ी पकड़नी है। कमारथन का विश्वविद्यालय वेल्स के प्रमुख विश्वविद्यालयों में से एक है, और यहाँ मैना एल्फिन Menna Elfyn क्रिएटिव लिट्ररेचर विभाग की अध्यक्षा है। मैना वैल्स की नामीगिरामी कवि हैं जिनकी पहचान पूरे विश्व में है। मैं उन्हीं से मिलने निकली हूँ। ऐसे वक्त भारत अच्छा लगता है, घर से निकले नहीं कि रिक्षा आटो आदि मिल गया। यात्रा अधिक मंहगी भी नहीं होती। यहाँ यरोप में बसों के किराये बेहद ज्यादा हैं. टैक्सी के बारे में सोचना भी कठिन लगता है। बसों का फिक्स समय और दूोरी होती है, छुट्टी के दिनों में तो शाम छह बजे के बाद बस मिलना मुश्किल हो जाता है। अब यहाँ घर से बस लेकर रेलवे स्टेशन तक जाना था, फिर कहीं गाड़ी पकड़नी थी। रेलवे किराया यदि पहले से बुक ना हो तो बहुत ज्यादा होता है, हमारे देश जैसे फिक्स नहीं होता। जब मैंने कमारथन जाने वाली गाड़ी देखी तो आ गई, मात्र दो डिब्बे की रेलगाड़ी। यूरोप में मैंने अन्य जगहों पर भी रेल यात्रा की है लेकिन इतनी कभी नहीं   देखी। निसन्देह साफ सुथरी थी, टिकिट चैकर भी बेहद तमीजदार, शुक्रिया , कृपया के बिना कोई वाक्य नहीं…..

 

कार्डिफ से कमारथन की यात्रा करीब तीन घण्टे की थी, चाय चाय, समोसा, भज्जी   सुने बिना रेल यात्रा हम भारतीयों को सूनी लगती है। पिछले सालों करीब हर सप्ताह दो बार यात्रा करनी पड़ी थी, त्रिवेन्द्रम से कालडि तक, सो रेल और स्टेशन की भीड़ भड़क्का जिन्दगी से काफी करीब से वाकिफ गई। इस यात्रा का सारा आनन्द खिड़की के बाहर था। बिना रुकावट नजारों को देखते जाना, कहीं बर्फ तो कहीं धूप, कहीं लम्बे लम्बे चारागाह, और खुबसूरत घर…. रेल का रुकना, चलना और हर स्टेशन के

बारे में सूचना देना , सब कुछ इतना अनुशासन से चल रहा था कि विश्वास करना कठिन सा लग रहा था।

 

अन्ततः कमारथन आ पहुँचा,गाड़ी समय से कुछ पहले ही थीम। लेकिन मैना एल्फिन स्टेशन पर इंतजार कर रही थी। Menna Elfyn में नन्ही बच्ची जैसी फुर्ती और सरलता है, हालांकि वे उम्र में साठ ऊपर है।मैना कहती है कि हम सीधे विश्वविद्यालय चलते हैं, हालांकि मेरा भाषण शाम को है, लेकिन दुपहर से पहले का वक्त कैसे बिताना है, सोचेंगे। हम लोग सीधे विश्वविद्यालय जाते हैं, भव्य इमारत खूबसूरत परिसर, लेकिन बेहद शान्त, लगता है कि छात्र कहीं छिपे बैठे हैं। मैना का हैकमरा छोटा लेकिन किताबों से लदालद भरा , अहाते साफ सुथरे और पुस्तकालय आधुनिक है। मैना मुझे पुस्तकालय ले जाती हैं, मैं कई किताबे खोल कर देखती हूँ, पत्रिकाएँ आदि सजी है। पुस्तकालय में कुछ वक्त बिताने के बाद हम यूनीवर्सिटी के कैंटीन में आते हैं। मैना मुझे बाहर रैस्टोरेन्ट ले जाना चाहती है, लेकिन मेरी इच्छा विश्वविद्यालय परखने की है इसलिये कैन्टीन चलने की बात कहती हूँ। अभी अभी जरा सी धूप खिली है, मैं खुश हो जाती हूँ , लेकिन साथ ही सोचती हूँ कि कुछ दिनों पहले मैं केरल की कड़रकड़ाती धूप से परेशान थी, और अब हालात ऐसे बदले कि अंजुरी भर धूप मन खिला रही है। कैन्टीन में कुछ छात्रा दिखाई देते हैं, बेहद आत्मलीन से, चहचाहट से कोसो दूर, यह कैसा अनुशासन है, लेकिन तभी कुछ आवाजे आई, छात्रों क एक समूह.. बाहर निकला, लेकिन रंग बता रहा था कि ये यूरोपीय है, एक छात्र के माथे पर लम्बा वैष्णवी तिलक लगा था। मैना ने तुरन्त उन्हे रोक कर पूछा कि वे कहाँ से आये हैं? जैसा मेरा अनुमान था, वे पाकिस्तान, बंगलादेश और भारत के छात्र थे। तिलकधारी गुजरात के थे। मेनेजमेन्ट के छात्र थे, और लण्डन विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। स्टडि टूर के तहत कमारथन विश्वविद्यालय आये थे।

 

कैन्टीन में तकनीक का प्रयोग अच्छा था। धुली तश्तरियाँ आटोमेटिक चलन ट्रे के द्वारा बाहर आती जाती हैं ‌और जूठी तश्तरियों को दूसरी चलन ट्रे पर रख दिया जाता है। मैना मुझसे खाने की सामग्री पसन्द करने को कहती है, मैं लैम्ब करि और चावल ले लेती हूँ, मैना ने बेहद अल्प भोजन लिया है। खाने के वक्त हमारी कई लोगों से मुलाकात होती हैं, कुछ भारतीय और श्री लंका मूल के अध्यापक भी मिलते हैं। वैल्श में अनेक भारतीय, श्रीलंकन महायुद्ध के वक्त से हैं, युद्ध के वक्त जांबाज सैनिकों को इंगलैण्ड में रहने की छूट मिल गई थी तो अनेक लोग वहीं बस गए थे। मैना बतलाती है कि पहले उनके पास सुविधाएँ कम थी, लेकिन अब वे यूरोपियों जैसे समृद्ध हो चुके हैं और सरकार से अपने हक की लड़ाई भी लड़ते हैं। मुझे एक महिला मिलती है जो व्हील चेयर पर हैं, जब उन्हें पता चलता है कि मैं केरल से हूँ तो वे मिलना चाहती हैं, क्यों कि वे माँ अमृता की भक्त है। वे अमृता के बारे में बात करना चाहती हैं, लेकिन मेरे पास इस विषय पर कुछ ज्यादा कहने को है नहीं है, ना मैं इस विषय में रुचि ले पाती हूं।

 

यू तो कामरथन शहर वैल्स राज्य के प्राचीनतम शहरों में से एक है, लेकिन मुझे बेहद सूना लगता है, ना ही सड़कों पर मीलों तक बस या कार की आवाजाही दिखाई देती है, ना ही बसों की, मैना प्रस्ताव रखती है कि चलों शहर घूम कर आते हैं, मैं खुशी खुशी तैयार हो जाती हूँ, और उसे कहती हूँ कि मुझे यहाँ की भेड़ के ऊन से बना गरम कोट चाहिये, इण्डियन कोट में मेरी सर्दी रुक ही नहीं पा रही है। मैना हँस कर कहती है कि .. हाँ तुम्हे देखते ही लगा कि तुम ठिठुर रही हो। मैना मुझे शहर के केन्द्र में ले जाती है, जब, बाहर से सुनसान लगने वाला शहर यहाँ तो काफी चहक रहा है। एक बेहद बड़े कम्पाउण्ड के भीतर अनेक दूकाने थी। इसे बड़ी माल ही कह सकते हैं, लेकिन दूकाने कुछ इस तरह थीं, जैसी हमारे यहाँ लाजपत नगर आदि शापिंग काम्पलेक्स में होती रही। मेरी आदत है कि मैं बाजार एक खास लक्ष्य लेकर ही जाती हूँ, व्यर्थ में मंडराना मुझे थका देता है। मैंने मैना से माल कल्चर के बारे में पूछा, तो कहने लगीं कि हाँ ये नया कल्चर लोगों की जेब पर ज्यादा बोझ डाल रहा है़ वेल्श लोग स्वभाव से कम फैशन वाले होते हैं और बेहद शान्त जीवन पसन्द करते हैं। फ्रान्सीसी और रोमन तो प्राचीततम काल से वेशभूषा के प्रति सजग थे, ब्रिटेनो में अंग्रेजो ने रोमनों से यह कला सीखी, लेकिन वैल्श ज्यादातर सरल लोग हैं, वैसे भी वैल्स में कोयला खान ज्यादा होने के कारण लोग उसमें काम करते थे, तो जीवन शैली के बारे में सहज रहना आसान था, लेकिन माल संस्कृति लोगों की जेबें ढीली कर रही है। हम दूकाने दर दूकाने घूमते रहे, लेकिन सर्द जाड़े के कपड़े दूकानों से गायब थे, दूकाने देख कर लग था कि गर्मी आ गई, जब कि कड़ाके की ठण्ड थी।

मैना कहती है कि शादी का सीजन आ गया है, युवा लोग मौसम नहीं फैशन देखते हैं, तो कितनी भी ठण्ड हो, वे ऐसे ही कपड़े पहन कर जायेंगे…

वैसे भी आजकल कपड़े छरहरे लोगों के लियेही बनते हैं, मेरे आकार के नहीं, मैं थोड़ी निराश होती हूँ तो मैना कहती है कि कोई बात नहीं, यहाँ कोट नहीं मिलेगा तो हम पारम्परिक दूकानों में जायेंगे…

 

यह हमारी आखिरी दूकान थी, जिसमें कुछ उम्मीद थी, और यहाँ मुझे दूकान के आखिरी छोर पर भेड़ की ऊन से बना एक काला कोट दिख ही जाता है, जिसका माप भी सही था।

मैंना को भी एक स्वेटर मिल गया। अब हम लोग रात के खाने का कुछ सामान खरीद कर यूनीवर्सिटी वपिस आते है। मैं तुरन्त अपने को काले कोट के हवाले कर देती हुँ। मैना के साथी मुझे वह पोस्टर ला कर देते हैं, जो उन्होंने विभाग की के लिये बनाया था। मैना कहती है कि हम लोग भाषण में भीड़ पसन्द नहीं करते, इसलिये पोस्टर केवल विभाग में लगाते हैं, मैं बस मुस्कुरा देती हूँ, क्यों कि हम तो भीड़ संस्कृति के लोग है, किसी भी कार्यक्रम की सफलता भीड़ से मापते हैं।

 

अब मीटिंग का वक्त आ गया, अब तक मैंने यह निश्चित नहीं था कि बोलना क्या हैं, मेरे पास बोलने के लिये एक घण्टे से ऊपर का वक्त था, मेरे लिये वाचनक्रिया लेखन क्रिया की अपेक्षा सहज है।

 

मैंने निश्चय किया कि मैं कुछ कला और कविता की वर्तमान वैश्विक स्थिति और कुछ अनुवाद बात करूंगी, क्यों कि मैं फिलहाल मैना की कविताओं का अनुवाद भी कर रही हूँ। अपनी कुछ कविताएँ तो पढ़नी ही थीं।

 

छोटे से कमरे में चलने वाली मीटिंग काफी अच्छी चली, सवाल जवाब भी हुए, ना कोई चाय आई, ना ही बिस्कुट, बस एक फोटोग्राफर था, जो विश्वविद्यालय की तरफ से नियुक्त था। मुझे याद आया कि कृत्या उत्सव में हमने शाम को खाली चाय दी तो एक बड़े कवि की शिकायत थी कि चाय के साथ बिस्कुट तक नहीं थे, कविता कितनी थी, इससे उन्हें मतलब नहीं था।

 

मैंने कविताएँ हिन्दी में पढ़ी और मैना ने अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा, मुझे अच्छा लगा जब उन्होंने भारतीय कविता और उसके पाठन की विधि के बारे में सवाल किये। यूरोप में कविता के साथ संगीत का काफी महत्व है, हमारे देश में भी मलयालम कविता में भी संगीत का महत्व था, लेकिन मुख्यधारा से जुड़ने के मोह ने गद्य का प्रवेश करवा दिया। निसन्देह विचारात्मकता तो रेखांकित हुई, लेकिन गैयता को धक्का लगा। यही स्थिति वैल्स की रही है, यहाँ संगीत और कविता का नाता रहा है, लेकिन यूरोप अपने भूत को कम ही नकारता है।

 

काफी लम्बा सैशन था, लेकिन अच्छा लगा, सवाल जवाब भी हुए, हँसने का मौका भी मिला। सैशन के बाद कुछ पुस्तकें भी बिकीं, लेकिन अच्छा लगा जब फोटोग्राफर ने कहा कि वह अलग से कुछ फोटो लेना चाहता है… शाम गहराने लगी, और हम दोनों घर लौट आये, मैना बता रही थी कि वैल्श लोगों के जीवन में परिवार की अहम भुमिका रहती है, वह सप्ताह में दो दिन अपने नातियों की बेबी सिट करती है, जिससे उनकी बेटी अपना काम कर सके, मैंना की बेटी भी लेखिका और गायिका है, फिल्मों में भी काम करती है़ जी हाँ वैल्श भाषा में भी फिल्में बनती हैं, और लोग देखते हैं। मैना के पति सरकारी अधिकारी और वकील हैं जो राजधानी कार्डिफ में रहते हैं इस वक्त तीन मंजिला घर में मैना अकेले ही रहती है। मैंने हँस कर कहा कि मैना और मैं एक सा जीवन जी रहे हैं।

 

यूरोपीय अपने घरों को बहुत सजा कर रखते हैं, प्रकृति की कठोरता उन्हें घर के निकट करती है, मैंना का घर भी काफी अच्छी तरह से सजा था, लेकिन अपने व्यस्त कार्यक्रम के चलते वे उसे सहेज नहीं पा रहीं थी, लाइब्रेरी, पठन कक्ष, बैठक, रसोई और बच्चों के कमरे, यूरोपीय मापदण्ड में इसे हवेली माना जा सकता है, मैंना बताती हैं कि घर बनाते वक्त बच्चे छोटे थे, तो घर भरा भरा लगता था, लेकिन अब सब अपने घर जा चुके हैं, तो अब लगता है कि फ्लैट में जाना पड़ेगा। फ्लैट संस्कृति पूरी दुनिया में हावी हो रही है। मैना के घर में हर जगह चीनी मिट्टी की केतलियाँ सजावटी सामान की तरह रखी हुई थीं। मैना कुछ असहज है, वह बाहर खाना खिलना चाहती है, लेकिन मैं घर में ही कुछ साधारण खाने के पक्ष में हूँ, हम लोग चाय पीते हुए बाते करते हैं, मैना वैल्श लोगों के भाषा आन्दोलन से जुड़ी रही है, वे कहती हैं कि हमने भाषा को अपनी अस्मिता से जोड़ा। मैना की कई कविताएँ जेल के केदियों के बारे में हैं. जिनसेस वे अपने जेलवास के दौरान मिली थीं। मैना ने साहित्य के साथ साथ समाज के अराजक माने जाने लोगों के अध्ययन से समन्धी शोध भी किया है, विशेष रूप से किशोर क्रिमिनल के बारे में लम्बे शोध का हिस्सा रहीं, वे बताती हैं दुष्कर से दुष्कर व्यक्तित्व के भीतर कलाकार मन अवश्य रहता है, मैना ने शोध के सिलसिले में एक ऐसे किशोर के साथ काफी वक्त बिताया जिसे होपलेस केस मान लिया गया था, लेकिन जब उस किशोर के सामने पियानों आता तो वह पूरा देवदुत लगने लगता था। मैना अपने भाषा आन्दोलन के बारे में बताती हैं कि आन्दोलन गुरिल्ला रीति से शुरु किया गया था, जिससे युवाओं को खुब मजा आया था। हम लोग रात को चुपचाप सारे अंग्रेजी बोर्डो पर स्याही पोत आते, और वैल्श भाषा में लिख आते, सुबह सरकारी कर्मचारी सफाई कर अंग्रेजी में लिखते, जेल भरों आन्दोलन हुआ, हम लोगों के लिये जेल जाना पिकनिक जाने जैसा था। लेकिन जेल ने मैना को अनेक पात्रों को नजदीक से देखने का मौका दे दिया। मैना बताती हैं कि हमने गाँधी के अंहिसा सिद्धान्त का पालन किया था। निसन्देह इस अहिंसा आन्दोलन का फायदा भी हुआ, और वैल्स की भाषा को मान्यता मिल गई, अब वैल्श भाषा का अपना बीबीसी है, सरकारी कामकाज में यह भाषा प्रयोग में लायी जाती है और बच्चों को भी वैल्श भाषा की जानकारी दी जाती है। मैना की शिक्षा वैल्श माध्यम में हुई थी, लेकिन बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा मिली, फिर भी उनकी बेटी और बेटा वैल्श भाषा में लिखते हैं। मैंना के पिता चैपल मे मिनिस्टर यानी कि पादरी थे, और माँ पारम्परिक गृहिणी, इसलिये मैना के जीवन में सामाजिक अच्छाइयों के प्रति जागरुकता स्वभाव से है।

 

वैल्श समाज के बारे में बात करते हुए वे बताती हैं कि स्वभाव से वैल्श लोग हँसमुख और सामाजिक होते हैं, लेकिन उनकी बाडी लैंग्वेज पारम्परिक है, यानि कि चुम्बन या गले मिलने की बजाय वे बस हय्या कहना पसन्द करते हैं, जबकि इंगलिश लोग बात कम करते हैं, मुस्कुराते भी काम भर का लेकिन चुम्बन और गले मिलना आवश्यक समझते हैं, मैं अधिकतर दौरे पर रहती हूँ, तो कभी कभी भूल जाती हूँ, किसी से अनायास गले मिलती हूँ तो वे पूछते हैं कि इंग्लैण्ड से लौटीआफि हो क्या?

यहाँ वैवाहिक परम्परा आज भी जीवित है, और तलाक समाज में पसन्द नहीं किया जाता, जीवन भर विवाह निभाना सामाजिक आचार है, लेकिन अब यह आचार टूट रहा है। विवाह लड़के लड़की की पसन्द से होते हैं लेकिन नौकरी पेशे को खास महत्व नहीं दिया जाता। कई कम पढ़े लिखे युवकों की शिक्षित लड़कियों से शादी हुई है। लेकिन गाँवों और खदान इलाकों में वाइफ बीटिंग भी काफी चलती है, कभी कभार महिलाएँ भाग कर किसी हेल्प लाइन का सहारा लेती हैं, लेकिन जब पति रोता गिड़गिड़ाता है, बच्चों का वास्ता देता है तो वापिस पुरानी जिन्दगी में लौट जाती हैं। लेकिन ये ही महिलाएँ वेल्स की स्वत्रन्त्रता का अहम हिस्सा रही हैं, वैल्स में स्वास्थ्य सहायता, सर्वशिक्षा अभियान में स्त्रियों ने विशेष योगदान दिया। शिक्षा के क्षेत्र ीमें भी महिलाएँ आगे रही है, इतिहास में भी कई उदाहरण हैं, जैसे Frances M organ ब्रिटेन की दूसरी महिला थी, जिन्होंने १८७० में मेडिकल साइंस में ग्रेजुएट किया। Elizabeth Hughes cambrige Traning college की पहली प्रिंसीपल थीं। उन्नीसवीं सदी में वेल्स कि कोयना उत्पादन फल फूल रहा था, इसलिये दूसरे देशों से भी खदान मजदूरों का आगमन शुरु हो गया। कोयले और लोह के निर्यात के कारण रेल और जहाज सेवाओं का विस्तार हुआ तो महिलाओं को कुछ ज्यादा स्वतंत्रता मिली। लेकिन वेल्स राज्य को अपनी मूलभूत सेवा के लिये काफी संघर्ष करना पड़ा, लेकिन आज यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ निशुल्क है, और व्यायाम , शिक्षा आदि पर भी खास ध्यान दिया जाता है. सरकारी स्कूलों में शिक्षा निशुल्क है, लेकिन नर्सरी के नाम पर जो प्राइवेट स्कूलों की खेप बढ़ी है, वह जम कर पैसा बनाती है। कोयला खदान समय में प्रिन्टिंग पब्लिशिंग आदि का चलन बढ़ा, लोगों ने बच्चों को वेल्स नाम देने शुरु कर दिये। वेल्स का राष्ट्रीय गीत और झण्डा आदि भी इसी कल की देन है। वेल्स रग्बी में का प्रचलन भी बढ़ा और वेल्स टीम के लिये इंग्लैण्ड टीम को हराना गौरव की बात बन गई। लेकिन वेल्स चेपलों में केथोलिक कट्टरता के स्थान पर लोकधर्मिता हावी थी, जो इंग्लैण्ड की चिन्ता का विषय बनी। जब प्रथम विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो वेल्श फ्रन्ट लाइनर थे, इसलिये कई जाने गई, और जीवन में अस्तव्यस्तता आई, तो स्त्रियाँ से बाहर निकली, पढ़ाई कर के नर्स, ड्राइविंग, पोस्ट आफिस यहाँ तक महिला सेना में काम करने लगीं। युद्ध के उपरान्त दूसरी समस्या यह आई कि व्यापार क्षेन्त्र में मन्दी छा गई, जिसका असर कोयले की खदानों पर भी पड़ा। वैश्विक मन्दी ने कोयले की खदानों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया, धार्मिक हिंसा ‌और महामारी भी खतरा बनी हुई थी। यह वक्त वेल्श भाषा के लिये भी नुक्सानदायक साबित हुआ, क्यों कि मन्दी की मार के कारण लोगों का पलायन बढ़ा और बाहर जाने के लिये अंग्रेजी की अनिवार्यता महसूस की जने लगी।हालांकि वेल्श साहित्य में नई कविता की शुरुआत १९०० से ही हो गई थी। दूसरे विश्वयुद्ध के वक्त वेल्श लोगो के जीवन में और परेशानियाँ लाया। बच्चे स्कूल छोड़ कर गाँवों में पलायन कर गए औरत और मर्द दोनों को खदानों , जमीन खुदाई और सेना में काम करनापड़ा। बच्चे ब्लूबेरी और रोसबेरी तोड़ कर ब्रिटिश सेना के लिये जाम आदि बनाने में लग गए। युद्ध के उपरान्त हजारों की संख्या में पोलिश शरणार्थी आ कर बस गए। १९४५ में वैल्स में पुनःपरिवर्तन की आँधी आई, १९५१ में कार्डिफ को सरकारी तौर पर वेल्स की राजधानी का दर्जा मिल गया। वेल्स राजनितिक तौर पर भी सक्रिय हो गया। यहाँ से वेल्स भाषा को भी राजनैतिक तरीके से लड़ाई लरनी पड़ी। १९७९ में तो इंगलैण्ड की महारानी ने वेल्स भाषा के लिये अलग बी बी सी चैनल बनाने की घोषणा कर दी, लेकिन मार्गगेट थैचर की सरकार इस बात को निबाहने को तैयार नहीं थी। तब वेल्स भाषा सोसाइटी के सदस्यों ने सालों लड़ाई लड़ी। Gwynfor Evans ने माँग पूरी ना होने पर आमरण अनशन की ठानी। सरकार को माँग माननी पड़ी, क्यों कि उन्हें डर था कि भाषा का मसला वेल्स को जला देगा तो १९८२ में कुछ वेल्स चेनाल शुरु कर दिये गये। १९८४ में कोयला खदान के मजदूरों की हड़ताल शुरु हुई तो थैचर ने कई खदानें बन्द करवा दीं, संभवतया उन्हें भय था कि इस तरह वेल्श लोग स्वतन्त्र होते जायेंगे। वेल्स की कोयला खदानें सदियों पुरानी है, उनके बन्द होने से हजारों लोगों की नौकरी चली गई। आज वेल्स के पास बस एक चालू खदान है, अरबों की सम्पत्ती जमीन में पुनः दफ्न हो गई। मैना बता रही थी कि कई मजदूरों की पत्नियों ने घर चलाने के लिए पढ़ाई की और स्कूलों कालेजों में नौकरियाँ की। क्यों कि उनके पति अवसाद के कारण नशे में डूब गये। आज भी कई घाटी के कस्बाई घरों में मर्द घर में बैठा है, पत्नी पढ़ लिख कर नौकरी कर रही है।

कोयला हड़ताल को करीब करीब मुम्बई कपड़ा मिल की हड़ताल की तरह दबा दिया गया था, और जैसे कि इस विषय को हिन्दी फिल्म का मुद्दा बनाया गया उसी तरह वेल्स की कई फिल्मों की कहानी कोयला दमन पर आधारित है।

 

यही कारण है कि मार्गरेट थैचर को वैल्श लोग कभी पसन्द नहीं कर पाये।

 

मैना के पास अनेक कहानियाँ है, वह बताती है कि किस तरह वह वियतनाम डाक्यूमेन्ट्री बनाने गई, और किस तरह गुरिल्ला युद्ध के लिये बनाई गई सुरंगों में फँस गई। मैना की खासियत है कि वह जीवन जुड़ी हर कथा को कविता मे अनुदित कर देती है।

 

हम नीन्द आने तक बाते करते रहते हैं,

 

दूसरे दिन मैं नाश्ते के बाद टीफी झील के किनारे घूमने निकल जाती हूँ, मैना के घर के एक सामने यह खुबसूरत वादी है, इस वादी की खुबसूरती अनुपम है इसे बस महसूस किया जा सकता है, एक पावन अनुभव, शब्द से परे

 

वापिस लौट कर हम पुनः अनुवाद और कविता पर चर्चा करते हैं, और दिन के भोजन के बाद लांग ड्राइव पर निकल जाते हैं। दोनो तरफ चरागाह, और उनमें चरती भेड़े, बतखें…… कहीं कहीं पर घोड़े भी दिखाई देते हैं, लेकिन सड़क पर भीड़ ना के बराबर है। मैना बताती है कि कमारथन यूनिवर्सिटी में अमेरिकन छात्र भी काफी संख्या में आते हैं, लेकिन मन्दी के इस दौर में विदेशी छात्रों की संख्या कम हो गई है। बसो की आवाजाही ना के बराबर थी, छात्र कैसे काम चलाते होंगे, सबके लिये कार खरीदना संभव भी नहीं है। मेना कहती है कि हाँ यही समस्या है, यहाँ अपनी गाड़ी ना हो तो यातायात कठिन है, मैं सड़कों पर बेहद बूढ़ों को भी कार चलाते देखती हूँ…. लेकिन आसपास का वातावरण इतना खुबसूरत है कि हम प्रकृति पान कर रहे थे

 

हम पुनः कमारथन विश्वविद्यालय के दुसरे खण्ड में आ पहुँचते है, यहाँ नयी और पुरानी इमारते साथ साथ है, चर्च जैसी भव्य इमारत देखने योग्य है.

 

वेल्स भाषा के लेखक , जिनका नाम मैं भूल रही हूँ, लेखन वर्कशाप चला रहे हैं, वे पहले अपनी बाल कथा साहित्य की किताब पढ़ते है, फिर सबकों एक एक चिट दे कर चिट पर लिखे वाक्य को आधार बना कर कुछ लिखने को कहते हैं। दरअसल यह क्रिया अंग्रेजी के छात्रों को वेल्श भाषा के साहित्य से जोड़ने का उपक्रम है। मेरी लौटने का वक्त करीब आता है…..

 

मैना और मैं दो दिनों से इतना साथ है कि छूटने का दुख होता है….

 

मैं पुनः कार्डिफ की ओर चल पड़ती हूँ….

 

 

क्रमशः

 

 

यात्रा —  2

20  मार्च, 2013

आज तड़के ही कमारथन के लिये गाड़ी पकड़नी है। कमारथन का विश्वविद्यालय वेल्स के प्रमुख विश्वविद्यालयों में से एक है, और यहाँ मैना एल्फिन Menna Elfyn क्रिएटिव लिट्ररेचर विभाग की अध्यक्षा है। मैना वैल्स की नामीगिरामी कवि हैं जिनकी पहचान पूरे विश्व में है। मैं उन्हीं से मिलने निकली हूँ। ऐसे वक्त भारत अच्छा लगता है, घर से निकले नहीं कि रिक्षा आटो आदि मिल गया। यात्रा अधिक मंहगी भी नहीं होती। यहाँ यरोप में बसों के किराये बेहद ज्यादा हैं. टैक्सी के बारे में सोचना भी कठिन लगता है। बसों का फिक्स समय और दूोरी होती है, छुट्टी के दिनों में तो शाम छह बजे के बाद बस मिलना मुश्किल हो जाता है। अब यहाँ घर से बस लेकर रेलवे स्टेशन तक जाना था, फिर कहीं गाड़ी पकड़नी थी। रेलवे किराया यदि पहले से बुक ना हो तो बहुत ज्यादा होता है, हमारे देश जैसे फिक्स नहीं होता। जब मैंने कमारथन जाने वाली गाड़ी देखी तो आ गई, मात्र दो डिब्बे  की रेलगाड़ी। यूरोप में मैंने अन्य जगहों पर भी रेल यात्रा की है लेकिन इतनी कभी नहीं   देखी। निसन्देह साफ सुथरी थी, टिकिट चैकर भी बेहद तमीजदार, शुक्रिया , कृपया के बिना कोई वाक्य नहीं…..

कार्डिफ से कमारथन की यात्रा करीब  तीन घण्टे की  थी, चाय चाय, समोसा, भज्जी   सुने बिना  रेल यात्रा हम  भारतीयों को सूनी लगती है। पिछले सालों करीब हर सप्ताह दो बार यात्रा करनी पड़ी थी, त्रिवेन्द्रम से कालडि तक, सो रेल और स्टेशन की भीड़ भड़क्का जिन्दगी से काफी करीब से वाकिफ  गई। इस यात्रा का सारा आनन्द खिड़की के बाहर था। बिना रुकावट नजारों को देखते जाना, कहीं बर्फ तो कहीं धूप, कहीं लम्बे लम्बे चारागाह, और खुबसूरत घर…. रेल का रुकना, चलना और हर स्टेशन के

बारे में सूचना देना , सब कुछ इतना अनुशासन से चल रहा था कि विश्वास  करना कठिन सा लग रहा था।

अन्ततः कमारथन आ पहुँचा,गाड़ी समय से कुछ पहले ही थीम। लेकिन मैना एल्फिन स्टेशन पर इंतजार कर रही थी। Menna Elfyn में नन्ही बच्ची जैसी फुर्ती और सरलता है, हालांकि वे उम्र में साठ ऊपर है।मैना कहती है कि हम सीधे विश्वविद्यालय चलते हैं, हालांकि मेरा भाषण शाम को है, लेकिन दुपहर से पहले का वक्त कैसे बिताना है, सोचेंगे। हम लोग सीधे विश्वविद्यालय जाते हैं, भव्य इमारत खूबसूरत परिसर, लेकिन बेहद शान्त, लगता है कि  छात्र कहीं छिपे बैठे हैं। मैना का हैकमरा छोटा लेकिन किताबों से लदालद भरा  , अहाते साफ सुथरे और पुस्तकालय आधुनिक है। मैना  मुझे पुस्तकालय ले जाती हैं, मैं कई किताबे खोल कर देखती हूँ, पत्रिकाएँ आदि सजी है। पुस्तकालय में कुछ वक्त बिताने के बाद हम यूनीवर्सिटी के कैंटीन में आते हैं। मैना मुझे बाहर रैस्टोरेन्ट ले जाना चाहती है, लेकिन मेरी इच्छा विश्वविद्यालय परखने की है इसलिये कैन्टीन चलने की बात कहती हूँ। अभी अभी जरा सी धूप खिली है, मैं खुश हो  जाती हूँ , लेकिन साथ ही सोचती हूँ कि  कुछ दिनों पहले मैं केरल की कड़रकड़ाती धूप से परेशान थी, और अब हालात ऐसे बदले कि अंजुरी भर धूप मन खिला रही है। कैन्टीन में कुछ छात्रा दिखाई देते हैं, बेहद आत्मलीन से, चहचाहट से कोसो दूर, यह कैसा अनुशासन है, लेकिन तभी कुछ आवाजे आई, छात्रों क एक समूह.. बाहर निकला, लेकिन रंग बता रहा था कि ये यूरोपीय है, एक छात्र के माथे पर लम्बा वैष्णवी तिलक लगा था। मैना ने तुरन्त उन्हे रोक कर पूछा कि वे कहाँ से आये हैं? जैसा मेरा अनुमान था, वे पाकिस्तान, बंगलादेश और भारत के छात्र थे। तिलकधारी गुजरात के थे। मेनेजमेन्ट के छात्र थे, और लण्डन विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। स्टडि टूर के तहत कमारथन विश्वविद्यालय आये थे।

कैन्टीन में तकनीक का प्रयोग अच्छा था। धुली तश्तरियाँ आटोमेटिक चलन ट्रे के  द्वारा बाहर आती जाती हैं ‌और जूठी तश्तरियों को दूसरी चलन ट्रे पर रख दिया जाता है। मैना मुझसे खाने की सामग्री पसन्द करने को कहती है, मैं  लैम्ब करि और चावल ले लेती हूँ, मैना ने बेहद अल्प भोजन लिया है। खाने के वक्त हमारी कई लोगों से मुलाकात होती हैं, कुछ भारतीय और श्री लंका मूल के अध्यापक भी मिलते हैं। वैल्श  में अनेक भारतीय, श्रीलंकन महायुद्ध के वक्त  से हैं, युद्ध के वक्त जांबाज सैनिकों को इंगलैण्ड में रहने  की छूट मिल गई थी तो अनेक लोग वहीं बस गए थे। मैना बतलाती है कि पहले उनके पास सुविधाएँ कम थी, लेकिन अब वे यूरोपियों  जैसे  समृद्ध हो  चुके हैं और सरकार से अपने हक की लड़ाई भी लड़ते हैं। मुझे एक महिला  मिलती है जो  व्हील चेयर पर  हैं, जब उन्हें पता चलता है कि मैं केरल से हूँ तो वे मिलना चाहती हैं, क्यों कि वे माँ अमृता की भक्त है। वे अमृता के बारे में बात करना चाहती हैं, लेकिन मेरे पास इस विषय पर कुछ ज्यादा कहने को है  नहीं है, ना मैं इस विषय में रुचि ले पाती हूं।

यू तो कामरथन शहर वैल्स राज्य के प्राचीनतम शहरों में से एक है, लेकिन मुझे बेहद सूना लगता है, ना ही सड़कों पर मीलों तक बस या कार की आवाजाही दिखाई देती है, ना ही बसों की, मैना प्रस्ताव रखती है कि चलों शहर घूम कर आते हैं, मैं खुशी खुशी तैयार  हो जाती हूँ, और उसे कहती हूँ कि मुझे यहाँ की भेड़ के ऊन से बना गरम कोट चाहिये, इण्डियन कोट में मेरी सर्दी रुक ही नहीं पा रही है। मैना हँस कर कहती है कि .. हाँ तुम्हे देखते ही लगा कि तुम ठिठुर रही हो। मैना मुझे शहर के केन्द्र में ले जाती है, जब, बाहर से सुनसान लगने वाला शहर यहाँ तो काफी चहक रहा है। एक  बेहद बड़े कम्पाउण्ड के भीतर अनेक दूकाने थी। इसे बड़ी माल ही कह सकते हैं, लेकिन  दूकाने कुछ इस तरह थीं, जैसी हमारे यहाँ लाजपत नगर आदि शापिंग काम्पलेक्स में होती  रही। मेरी आदत है कि मैं बाजार एक खास लक्ष्य लेकर ही जाती हूँ, व्यर्थ में मंडराना मुझे थका देता है। मैंने मैना से माल कल्चर के बारे में पूछा, तो कहने लगीं कि हाँ ये नया कल्चर लोगों की जेब पर ज्यादा बोझ डाल रहा है़ वेल्श लोग स्वभाव से कम फैशन वाले होते हैं और बेहद शान्त जीवन पसन्द करते हैं। फ्रान्सीसी  और रोमन तो प्राचीततम काल से वेशभूषा के प्रति  सजग थे, ब्रिटेनो में अंग्रेजो ने रोमनों से यह कला सीखी, लेकिन वैल्श ज्यादातर सरल लोग हैं, वैसे भी वैल्स में कोयला खान ज्यादा होने के कारण लोग उसमें काम करते थे, तो जीवन शैली के बारे में सहज रहना आसान था, लेकिन माल संस्कृति लोगों की जेबें ढीली कर रही है। हम दूकाने दर दूकाने घूमते रहे, लेकिन सर्द जाड़े के कपड़े दूकानों से गायब थे, दूकाने देख कर लग था कि गर्मी आ गई, जब कि कड़ाके की ठण्ड थी।

मैना कहती है कि शादी का सीजन आ गया है, युवा लोग मौसम नहीं फैशन देखते हैं, तो कितनी भी ठण्ड हो, वे ऐसे ही कपड़े पहन कर जायेंगे…

वैसे भी आजकल कपड़े छरहरे लोगों के लियेही बनते हैं, मेरे आकार के नहीं, मैं थोड़ी निराश होती हूँ तो मैना कहती है कि कोई बात नहीं, यहाँ कोट नहीं मिलेगा तो हम पारम्परिक दूकानों में जायेंगे…

यह हमारी आखिरी दूकान थी, जिसमें कुछ उम्मीद थी, और यहाँ मुझे दूकान के आखिरी छोर पर भेड़ की ऊन से बना एक काला कोट दिख ही जाता है, जिसका माप भी सही था।

मैंना को भी एक स्वेटर मिल गया। अब हम लोग रात के खाने  का कुछ सामान खरीद कर यूनीवर्सिटी वपिस आते है। मैं तुरन्त अपने को  काले कोट के हवाले कर देती हुँ। मैना के साथी मुझे वह पोस्टर ला कर देते हैं, जो उन्होंने विभाग की के लिये बनाया  था। मैना कहती है कि हम लोग भाषण में भीड़ पसन्द नहीं करते, इसलिये पोस्टर केवल विभाग में लगाते हैं, मैं बस मुस्कुरा देती हूँ, क्यों कि हम तो भीड़ संस्कृति के लोग है, किसी भी कार्यक्रम की सफलता भीड़ से मापते हैं।

अब मीटिंग का वक्त आ गया, अब  तक मैंने यह निश्चित नहीं था कि बोलना क्या हैं, मेरे पास बोलने के लिये एक घण्टे से ऊपर का वक्त था, मेरे लिये वाचनक्रिया लेखन क्रिया की अपेक्षा सहज है।

मैंने निश्चय किया कि मैं कुछ कला और कविता की वर्तमान वैश्विक स्थिति और कुछ अनुवाद बात करूंगी, क्यों कि मैं फिलहाल मैना की कविताओं का अनुवाद भी कर रही हूँ। अपनी कुछ कविताएँ तो पढ़नी ही थीं।

छोटे से कमरे में चलने वाली मीटिंग काफी अच्छी चली, सवाल जवाब भी हुए, ना कोई चाय आई, ना ही बिस्कुट, बस एक फोटोग्राफर था, जो विश्वविद्यालय की तरफ से नियुक्त था। मुझे याद आया कि कृत्या उत्सव में हमने शाम को खाली चाय दी तो एक  बड़े कवि की शिकायत थी कि चाय के साथ बिस्कुट तक नहीं थे, कविता कितनी थी, इससे उन्हें मतलब  नहीं था।

मैंने कविताएँ हिन्दी में पढ़ी और मैना ने अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा, मुझे अच्छा लगा जब उन्होंने भारतीय कविता और उसके पाठन की विधि के बारे में सवाल किये। यूरोप में कविता के साथ संगीत का काफी महत्व है, हमारे देश में भी मलयालम कविता में भी संगीत का महत्व था, लेकिन मुख्यधारा से जुड़ने के मोह ने गद्य का प्रवेश करवा दिया। निसन्देह विचारात्मकता तो रेखांकित हुई, लेकिन गैयता को धक्का लगा। यही स्थिति वैल्स की रही है, यहाँ संगीत और कविता का नाता रहा है, लेकिन यूरोप अपने भूत को कम ही नकारता है।

काफी लम्बा सैशन था, लेकिन अच्छा लगा, सवाल जवाब भी हुए, हँसने का मौका भी  मिला। सैशन के बाद कुछ पुस्तकें भी बिकीं, लेकिन अच्छा लगा जब फोटोग्राफर ने कहा कि वह अलग से कुछ फोटो लेना चाहता है… शाम गहराने लगी, और हम दोनों घर लौट आये, मैना बता रही थी कि वैल्श लोगों के जीवन में परिवार की अहम भुमिका रहती है, वह सप्ताह में दो दिन अपने नातियों की बेबी सिट करती है, जिससे उनकी बेटी अपना काम कर सके, मैंना की बेटी भी लेखिका और गायिका है, फिल्मों में भी काम करती है़ जी हाँ वैल्श भाषा में भी फिल्में बनती हैं, और लोग देखते हैं। मैना के पति सरकारी अधिकारी और वकील हैं जो राजधानी कार्डिफ में रहते हैं इस वक्त तीन मंजिला घर में मैना अकेले ही रहती है। मैंने हँस कर कहा कि मैना और मैं  एक सा जीवन जी रहे हैं।

यूरोपीय अपने  घरों को बहुत सजा कर रखते हैं, प्रकृति की कठोरता उन्हें घर के निकट करती है, मैंना का  घर भी काफी अच्छी तरह से सजा था, लेकिन अपने व्यस्त कार्यक्रम के चलते वे उसे सहेज नहीं पा रहीं थी, लाइब्रेरी, पठन कक्ष, बैठक, रसोई और बच्चों के कमरे, यूरोपीय मापदण्ड में इसे हवेली माना जा सकता है, मैंना बताती हैं कि घर बनाते वक्त बच्चे छोटे थे, तो घर भरा भरा लगता था, लेकिन अब सब अपने घर जा चुके हैं, तो अब लगता है कि फ्लैट में जाना पड़ेगा। फ्लैट संस्कृति पूरी दुनिया में हावी हो रही है। मैना के घर में हर जगह चीनी मिट्टी की केतलियाँ सजावटी सामान की तरह रखी हुई थीं। मैना कुछ असहज है, वह बाहर खाना खिलना चाहती है, लेकिन मैं घर में ही कुछ साधारण खाने के पक्ष में हूँ, हम लोग चाय  पीते हुए बाते करते हैं, मैना वैल्श लोगों के भाषा आन्दोलन से जुड़ी रही है, वे कहती हैं  कि हमने भाषा को अपनी अस्मिता से जोड़ा। मैना की कई कविताएँ जेल के केदियों के बारे में हैं. जिनसेस  वे अपने जेलवास के दौरान मिली थीं। मैना ने साहित्य के साथ साथ समाज के अराजक माने जाने लोगों के अध्ययन से समन्धी शोध भी किया है, विशेष रूप से  किशोर क्रिमिनल के बारे में लम्बे शोध का हिस्सा रहीं, वे बताती हैं दुष्कर से दुष्कर व्यक्तित्व के भीतर कलाकार मन अवश्य रहता है, मैना ने शोध के सिलसिले में एक ऐसे किशोर के साथ काफी वक्त बिताया जिसे होपलेस केस मान लिया गया था, लेकिन जब उस किशोर के सामने पियानों आता तो वह पूरा देवदुत लगने लगता था। मैना अपने भाषा आन्दोलन के बारे में बताती हैं कि आन्दोलन गुरिल्ला रीति से शुरु किया गया था, जिससे युवाओं को खुब मजा आया था। हम लोग रात को चुपचाप सारे अंग्रेजी बोर्डो पर स्याही पोत आते, और वैल्श भाषा में लिख आते, सुबह सरकारी कर्मचारी सफाई कर अंग्रेजी में लिखते, जेल भरों आन्दोलन हुआ, हम लोगों के लिये जेल जाना पिकनिक जाने जैसा था। लेकिन जेल ने मैना को अनेक पात्रों को नजदीक से देखने का मौका दे दिया। मैना बताती हैं कि हमने गाँधी के अंहिसा सिद्धान्त का पालन किया था। निसन्देह इस अहिंसा आन्दोलन का फायदा भी हुआ, और वैल्स की भाषा को मान्यता मिल गई, अब वैल्श भाषा का अपना बीबीसी है, सरकारी कामकाज में यह भाषा प्रयोग में लायी जाती है और बच्चों को भी वैल्श भाषा की जानकारी दी जाती है। मैना की शिक्षा वैल्श माध्यम में हुई थी, लेकिन बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा मिली, फिर भी उनकी बेटी और बेटा वैल्श भाषा में लिखते हैं। मैंना के पिता चैपल मे मिनिस्टर यानी कि पादरी थे, और माँ पारम्परिक गृहिणी, इसलिये मैना के जीवन में सामाजिक अच्छाइयों के प्रति जागरुकता स्वभाव से है।

वैल्श समाज के बारे में बात करते हुए वे बताती हैं कि स्वभाव से वैल्श लोग हँसमुख और सामाजिक होते हैं, लेकिन उनकी बाडी लैंग्वेज पारम्परिक है, यानि कि चुम्बन या गले मिलने की बजाय वे बस हय्या कहना पसन्द करते हैं, जबकि इंगलिश लोग बात कम करते हैं, मुस्कुराते भी काम भर का लेकिन चुम्बन और गले मिलना आवश्यक समझते हैं, मैं अधिकतर दौरे पर रहती हूँ, तो कभी कभी भूल जाती हूँ, किसी  से अनायास गले मिलती हूँ तो वे पूछते हैं कि इंग्लैण्ड से लौटीआफि हो क्या?

यहाँ वैवाहिक परम्परा आज भी जीवित है, और तलाक समाज में पसन्द नहीं किया जाता, जीवन भर विवाह निभाना सामाजिक आचार है, लेकिन अब यह आचार टूट रहा है। विवाह लड़के लड़की की पसन्द से होते हैं लेकिन नौकरी पेशे को खास महत्व नहीं दिया जाता। कई कम पढ़े लिखे युवकों की शिक्षित लड़कियों से शादी हुई है। लेकिन गाँवों और खदान इलाकों में वाइफ बीटिंग भी काफी चलती है, कभी कभार महिलाएँ भाग कर किसी हेल्प लाइन का सहारा लेती हैं, लेकिन जब पति रोता गिड़गिड़ाता है, बच्चों का वास्ता देता है तो वापिस पुरानी जिन्दगी में लौट जाती हैं। लेकिन ये ही महिलाएँ वेल्स की स्वत्रन्त्रता का अहम हिस्सा रही हैं, वैल्स में स्वास्थ्य सहायता, सर्वशिक्षा अभियान में स्त्रियों ने विशेष योगदान दिया। शिक्षा के क्षेत्र ीमें भी महिलाएँ आगे रही है, इतिहास में भी कई उदाहरण हैं, जैसे Frances M organ ब्रिटेन की दूसरी महिला थी, जिन्होंने १८७० में मेडिकल साइंस में ग्रेजुएट किया। Elizabeth Hughes cambrige Traning college की पहली प्रिंसीपल थीं। उन्नीसवीं सदी में वेल्स कि कोयना उत्पादन फल फूल रहा था, इसलिये दूसरे देशों से भी खदान मजदूरों का आगमन शुरु हो गया। कोयले और लोह के निर्यात के कारण रेल और जहाज सेवाओं का विस्तार हुआ तो महिलाओं को कुछ ज्यादा स्वतंत्रता मिली। लेकिन वेल्स राज्य को अपनी मूलभूत सेवा के लिये काफी संघर्ष करना पड़ा, लेकिन आज यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ निशुल्क है, और व्यायाम , शिक्षा आदि पर भी खास ध्यान दिया जाता है. सरकारी स्कूलों में शिक्षा निशुल्क है, लेकिन नर्सरी के नाम पर जो प्राइवेट स्कूलों की खेप बढ़ी है, वह जम कर पैसा बनाती है। कोयला खदान समय में प्रिन्टिंग पब्लिशिंग आदि का चलन बढ़ा, लोगों ने बच्चों को वेल्स नाम देने शुरु कर दिये। वेल्स का राष्ट्रीय गीत और झण्डा आदि भी इसी कल की देन है। वेल्स रग्बी में का प्रचलन भी बढ़ा और वेल्स टीम के लिये इंग्लैण्ड टीम को हराना गौरव की बात बन गई। लेकिन वेल्स चेपलों में केथोलिक कट्टरता के स्थान पर लोकधर्मिता हावी थी, जो इंग्लैण्ड की चिन्ता का विषय बनी। जब प्रथम विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो वेल्श फ्रन्ट लाइनर थे, इसलिये कई जाने गई, और जीवन में अस्तव्यस्तता आई, तो स्त्रियाँ से बाहर निकली, पढ़ाई कर के नर्स, ड्राइविंग, पोस्ट आफिस यहाँ तक महिला सेना में काम करने लगीं। युद्ध के उपरान्त दूसरी समस्या यह आई कि व्यापार क्षेन्त्र में मन्दी छा गई, जिसका असर कोयले की खदानों पर भी पड़ा। वैश्विक मन्दी ने कोयले की खदानों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया, धार्मिक हिंसा ‌और महामारी भी खतरा बनी हुई थी। यह वक्त वेल्श भाषा के लिये भी नुक्सानदायक साबित हुआ, क्यों कि मन्दी की मार के कारण लोगों का पलायन बढ़ा और बाहर जाने के लिये अंग्रेजी की अनिवार्यता महसूस की जने लगी।हालांकि वेल्श साहित्य में नई कविता की शुरुआत १९०० से ही हो गई थी। दूसरे विश्वयुद्ध के वक्त वेल्श लोगो के जीवन में और परेशानियाँ लाया। बच्चे स्कूल छोड़ कर गाँवों में पलायन कर गए औरत और मर्द दोनों को खदानों , जमीन खुदाई और सेना में काम करनापड़ा। बच्चे ब्लूबेरी और रोसबेरी तोड़ कर ब्रिटिश सेना के लिये जाम आदि बनाने में लग गए। युद्ध के उपरान्त हजारों की संख्या में पोलिश शरणार्थी आ कर बस गए। १९४५ में वैल्स में पुनःपरिवर्तन की आँधी आई, १९५१ में कार्डिफ को सरकारी तौर पर वेल्स की राजधानी का दर्जा मिल गया। वेल्स राजनितिक तौर पर भी सक्रिय हो गया। यहाँ से वेल्स भाषा को भी राजनैतिक तरीके से लड़ाई लरनी पड़ी। १९७९ में तो इंगलैण्ड की महारानी ने  वेल्स भाषा के लिये अलग  बी बी सी चैनल बनाने की घोषणा कर दी, लेकिन मार्गगेट थैचर की सरकार इस बात को निबाहने को तैयार नहीं थी। तब वेल्स भाषा सोसाइटी के सदस्यों ने सालों लड़ाई लड़ी। Gwynfor Evans ने माँग पूरी ना होने पर आमरण अनशन की ठानी। सरकार को माँग माननी पड़ी, क्यों कि उन्हें डर था कि भाषा का मसला वेल्स को जला देगा तो १९८२ में कुछ वेल्स चेनाल शुरु कर दिये गये। १९८४ में कोयला खदान के मजदूरों की हड़ताल शुरु हुई तो थैचर ने कई खदानें बन्द करवा दीं, संभवतया उन्हें भय था कि इस तरह वेल्श लोग स्वतन्त्र होते जायेंगे। वेल्स की कोयला खदानें सदियों पुरानी है, उनके बन्द होने से हजारों लोगों की नौकरी चली गई। आज वेल्स के पास बस एक चालू खदान है, अरबों की सम्पत्ती जमीन में पुनः दफ्न हो गई। मैना बता रही थी कि कई मजदूरों की पत्नियों ने घर चलाने के लिए पढ़ाई की और स्कूलों कालेजों में नौकरियाँ की। क्यों कि उनके पति अवसाद के कारण नशे में डूब गये। आज भी कई घाटी के कस्बाई घरों में मर्द घर में बैठा है, पत्नी पढ़ लिख कर नौकरी कर रही है।

कोयला हड़ताल को करीब करीब मुम्बई कपड़ा मिल की हड़ताल की तरह दबा दिया गया था, और जैसे कि इस विषय को हिन्दी फिल्म का मुद्दा बनाया गया उसी तरह वेल्स की कई फिल्मों की कहानी कोयला दमन पर आधारित है।

यही कारण है कि मार्गरेट थैचर को वैल्श लोग कभी पसन्द नहीं कर पाये।

मैना के पास अनेक कहानियाँ है, वह बताती है कि किस तरह वह वियतनाम डाक्यूमेन्ट्री बनाने गई, और किस तरह गुरिल्ला युद्ध के लिये बनाई गई सुरंगों में फँस गई। मैना की खासियत है कि वह जीवन जुड़ी हर कथा को कविता मे अनुदित कर देती है।

हम नीन्द आने तक बाते करते रहते हैं,

दूसरे दिन मैं नाश्ते के बाद टीफी झील के किनारे घूमने निकल जाती हूँ, मैना के घर के एक सामने यह खुबसूरत वादी है, इस वादी की खुबसूरती अनुपम है इसे बस महसूस किया जा सकता है, एक पावन अनुभव, शब्द से परे

वापिस लौट कर हम पुनः अनुवाद और कविता पर चर्चा करते हैं, और दिन के भोजन के बाद लांग ड्राइव पर निकल जाते हैं। दोनो तरफ चरागाह, और उनमें चरती भेड़े, बतखें…… कहीं कहीं पर घोड़े भी दिखाई देते हैं, लेकिन सड़क पर भीड़ ना के बराबर है। मैना बताती है कि कमारथन यूनिवर्सिटी में अमेरिकन छात्र भी काफी संख्या में आते हैं, लेकिन मन्दी के इस दौर में विदेशी छात्रों की संख्या कम हो गई है। बसो की आवाजाही ना के बराबर थी, छात्र कैसे काम चलाते होंगे, सबके लिये कार खरीदना संभव भी नहीं है। मेना कहती है कि हाँ यही समस्या है, यहाँ अपनी गाड़ी ना हो तो यातायात कठिन है, मैं सड़कों पर बेहद बूढ़ों को भी कार चलाते देखती हूँ…. लेकिन आसपास का वातावरण इतना खुबसूरत है कि हम प्रकृति पान कर रहे थे

हम पुनः कमारथन विश्वविद्यालय के दुसरे खण्ड में आ पहुँचते है, यहाँ नयी और पुरानी इमारते साथ साथ है, चर्च जैसी भव्य इमारत देखने योग्य है.

वेल्स भाषा के लेखक , जिनका नाम मैं भूल रही हूँ, लेखन वर्कशाप चला रहे हैं, वे पहले अपनी बाल  कथा साहित्य की किताब पढ़ते है, फिर सबकों एक एक चिट दे कर चिट पर लिखे वाक्य को आधार बना कर कुछ लिखने को कहते हैं। दरअसल यह क्रिया अंग्रेजी के छात्रों को वेल्श भाषा के साहित्य से जोड़ने का उपक्रम है। मेरी लौटने का वक्त करीब आता है…..

मैना और मैं दो दिनों से इतना साथ है कि छूटने का दुख होता है….

मैं पुनः कार्डिफ की ओर चल पड़ती हूँ….