जुले लद्दाख ( Part-5) By Rati Saxena

आज यात्रा काफी जल्दी शुरू हो गई क्यों कि हमे सुदूर पर्वतों में बसी पैंगाग स्तो यानी की झील देखने जाना था।  करीब छह बजे हमे डेरे से निकलना था। आज की यात्रा में किरण औरसंजीव के साथ उनका चार साल का गोलमटोल बेटा गोलू भी था। गोलू पर्वतीय माता पिता का बेटा है तो चेहरे पर पर्वतीय भोलापन तो स्वाभाविक है, उसकी आवाज बड़ी मधुर थी, वह बोलता है तो ऐसा लगता है मानों उसकी आवाज बाहर निकलने की जगह भीतर की ओर जा रही है। चहचह करती सी मधुर  आवाज से वह दिल खींच लेता है। किरण की उम्र मेरी बड़ी बेटी जितनी ही होगी, लेकिन वह बहुत संभल कर धीरे- धीरे बाते किया करती है,उम्र का अदब बनाए हुए एक अच्छी दोस्त की तरह। यह विशेषता काफी कम लोगों में होती है। संजीव रोल्वा स्मार्ट और अदबदार सेना के आफीसर हैं। इसलिए उन लोगों के साथ यात्रा करना हम लोगों के लिए बड़ा सुखकारी हुआ। रात के आराम के बाद सुबह मैं तरोताजा थी ।  हम लोग काफी सवेरे ही घर से निकल गए, सुबह के समय शहर खूबसूरत लगता है, अधनींदा सा, आँखे मल कर उठता सा…लेकिन लेह की तो बात ही अलग, सूरज जरूर में चढ़ आया था, लेकिन शहर के चेहरे पर अभी आलस्य का अछूतापन बाकी था। नवाँग बेहद तेज गाड़ी चलाते थे, कुछ ही हम सड़क के उस छोर पर थे जहाँ से लेह शहर दिखाई दे रहा था। उपर से लेह एक बड़े से गाँव की तरह ही दिखाई दे रहा था, दूर- दूर मकान, सामान्य साज सज्जा किन्तु एक अछूता सा सौन्दर्य… इसी बीच किरण ने बताया कि उसकी मौसी और चाचा का घर लेह में ही है, और वे ईसाई हैं।

मुझे जरा आश्चर्य हुआ, मैंने पूछा कि मैं यही सोचती थी कि तुम कुल्लू मनाली की हो।

उसने जवाब दिया – “हाँ अभी तो हम वहीं के हैं, दरअसल मेरे पूर्वज लेह छोड़कर कुल्लू मनाली चले आए थे, उन्होंने तो अपना धर्म नहीं बदला , लेकिन जो लोग लद्दाख मे रह गए, उन्होंने जरूर अपना धर्म बदल लिया।“

मैंने उससे विस्तार में कुछ नहीं पूछा, पर सोचा कि हो सकता है कि  विस्थापन का कारण लद्दाख के दुर्दिन हों, जो लोग अपनी अस्मिता  को बचा ले जाना चाहते थे, वे अपेक्षाकृत नीचे प्रदेश में चले गए और जो जमीन को छोड़ना नहीं चाहते होंगे उन्हे अपनी पहचान बदलनी पड़ी। अब मुझे समझ में आया कि किरण क्यों इतनी सौम्य है।

संजीव ने बताया कि यह देखिए नीचे, यह एक गाँव की शुरुआत है, यह मीलो  तक चलता चला जाता है, यह एशिया का सबसे बड़ा गाँव माना जाता है। मैंने नीचे झाँक कर देखा, निसन्देह एक खूबसूरत गाँव था, इस तरह के दृश्य मैंने मात्र पुस्तकों में देखे थे। यहाँ गाँवों में मकान एक दूसरे से सटे नहीं होते है, एक मकान और उसके आसपास सीढ़ियों के आकार में कटे कई खेत , कहीं पर कुछ गाय , गधा आदि कुछ जानवर भी । करीब- करीब सभी मकानो के छत की ऊपरी डोली पर घास के पूले और गोबर के छाने सटे हुए इस तरह से रखे हुए थे कि लग रहा था कि यह सजावट का कोई तरीका है। संभवतः यह ईंधन जमा करने का प्राकृतिक तरीका होगा, घास के पूलों के कारण गर्मियों में छत अधिक गरम नहीं होगी और घास सूख भी पाएगी। इन पहाड़ी प्रदेशों में लोगों को सर्दियों के दिनों के लिए भोजन बचा कर रखना पड़ता है, क्यों कि तब लद्दाख मे केवल एक रंग नजर आता है, वह है सफेद। संजीव रोल्वा बता रहे थे कि इस वक्त जो पहाड़ हमे सिर से ऊपर दिख रहें वे सब कुछ देर बाद निगाह के नीचे आ जाएँगे। हम गोल- गोल चक्कर दार सड़कों से गुजरते ऊपर चढ़ने लगे। क्यों कि कार मे ज्यादा लोग थे, इसलिए समय बड़ी आसानी से गुजर रहा था। संजीव उन दिनों को याद कर रहे थे जब उनकी पोस्टिंग लद्दाख के बार्डर एरिया में  हुई थी।

 

कुछ देर में हमें बर्फीली चोटिया दिखाई देने लगीं और पहाड़ों की चोटियाँ हमारी आँखों के सीमा स्तर तक आ गईं। अब हम चाँगला   के करीब पहुँच गए थे हवा में खुनक बढ़ गई थी, मरुस्थल में जन्में मेरे जैसे के लिए बर्फ एक कल्पना होती है, बर्फ को इतना करीब देख कर मजा आ रहा था।  यहाँ पर बौद्ध गोम्फा के साथ साथ एक शिव मन्दिर भी था। सेना के जवानों की इस मन्दिर पर बड़ी आस्था है। संजीव ने कहा कि मैडम धीरे- धीरे जाइये, क्यों कि इस ऊँचाई पर सीढ़ी चढ़ने से साँस फूल जाती है। उन्होंने सेना के जवान का वाकया सुनाया कि कैसे वह दौड़ कर सीढ़ी चढ़ गया और आखिरी सीढ़ी पर पहुँचते ही ढेर हो गया। यह बात मैं भी महसूस कर रही थी कि लद्दाख में सीढ़ी चढ़ना काफी मुश्किल लगता है, कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ही साँस फूलने लगती है।

मन्दिर में दर्शन करने के बाद हम पहाड़ पर बिछी बर्फ पर चढ़ने की कोशिश करने लगे, डर भी लग रहा था कि कहीं पैर ना फिसल जाए। गोलू पहाड़ी  मेमने की तरह खटखट करके चढ़ गया ।   लेकिन जब उसने मम्मी को बर्फ पर चढ़ते देखा तो मम्मी की चिन्ता में लग गया,.. मम्मी .. संभल कर आना, वह जोर से चिल्लाया और किरण  की तरफ भागा चला आया, रास्ते में जरा सा हिस्सा था जहाँ बर्फ टूट गई थी, गोलू का पाँव फिसला और गोलू धड़ाम…अब तो गोलू जी का रोना काफी लम्बा खिंच गया, क्यों कि नाखून के पास जरा सा खून भी झलक आया था।

चंगला ला समुद्र से 17800 फीट की ऊँचाई पर है। यहाँ  पर सेना के जवान तैनात रहते है जो हर आने वाले को चाय पेश करते हैं। पास ही सौगात के सामान की दूकान भी थी। सेना का यह रूप देखकर अच्छा लगा। चारों तरफ बरफ बिछी थी, मन बारबार बर्फ की ओर लपकता रहा। संजीव और ड्राइवर दोनों ने बतलाया कि अभी आगे बहुत अच्छी बरफ आने वाली है, वही लुत्फ उठाइए। वास्तब में थोड़ी देर में ऐसी जगह आई जहाँ पर बर्फ इस तरह से जमी थी कि बैठने की खोह सी बन गई, बर्फ के पास जाने पर ठण्ड का अहसास नहीं होता है। हम लोग बारी- बारी से बर्फ की खोह में बैठकर फोटो खिंचवाने लगे। गोलू जी बर्फ को देख कर अपनी चोट को भुला बैठे।

 

थोड़ी दूर पर रास्ते में पहाड़ी जानवर जैसे कि भेड़ें , गधे, घोड़े आदि चरते दिखाई दिए। पहाड़ों में शहरों से अलग कुछ घुमक्कड़ जातियाँ भी रहती हैं जिन्हें दुनिया से कोई मतलब ही नहीं होता। हमे रास्ते में एक दो जगह दो चार टेन्ट वाले समुदाय दिखाई पड़े, पता चला कि ये वे घुमक्कड़ लद्दाखी है जो हर मौसम चलते रहते हैं। भेड़ की ऊन के बने लम्बे चोगे , सिर पर स्कार्फ जैसा वस्त्र और घुटने तक जूते, बस इतने से उनकी हर मौसम में रक्षा हो जाती है। कभी कभार वे लद्दाखी मैदान में उतरते हैं और पहाड़ी जड़ी बूटिया या कुछ पत्थर आदि बेच कर मतलब का सामान ले आते हैं। उनका संसार बस पहाड़ का उताव चढ़ाव होता है, जिन्दगी के उताव चढ़ाव से वे बिल्कुल भी वाकिफ नहीं होते हैं। एक अजीब सी शान्ति में जीते हैं ये लोग, किन्नरों की तरह अपने आप में जीते हुए। न बेजान चीजों का जमघट , ना ही उनसे उत्पन्न बोरियत, बस शान्ति ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य।

थोड़ी देर में हम  तंगत्से में संजीव रोल्वा के केम्प में पहुँच गए जहाँ हम लोगो के लिए नाश्ते का इंतजाम था। हम लोग फाइबर ग्लास हट में जा बैठे, संजीव जी के पलटन के जवानों ने गरमागरम आलू के पराँठों का इंतजाम कर रखा था। बिस्कुट आदि तो साथ थे ही। हम लोगों ने जम कर नाश्ता किया और आगे चल दिए। अब हम उन पहाड़ों से ऊपर थे जिनपर चल कर आए थे।  कुछ दूर बार संजीव ने कहा मैडम आप आँखे बन्द कर लीजिए और तभी खोलिए जब मैं कहूँ। हमने बिना किसी प्रतिवाद के आँखे मून्द ली। जब आँखे खोली तो एक नीलम के नगीने को पहाड़ों के बीच जड़ा पाया। जी हाँ हम लोग पेंगांग त्सो पहुँच गए थे। और पहाड़ों के बीच एक नीली कच्च झील अठखेलियाँ कर रही थी। इतना नीला रंग? शायद हम फोटो में देखते तो यही सोचते कि  फोटो का कमाल है। संजीव ने कहा ः मैंने इसीलिए तो आप लोगों से आँख बन्द करने को हा जिससे आप पूरी झील को एक साथ देखें, तभी इसे भीतर तक महसूस कर पाएँगी।

संजीव स्वयं चित्रकार हैं इसलिए रंग के प्रति इतने अनुभूति रखते हैं। पैंगाग झील का चालीस प्रतिशत भाग भारत में है और 60 प्रतिशत चीन अधिकृत तिब्बत में है। यह एकदम खारी है और बहुत ही गहरी है। सामरिक महत्व के कारण इस पर नौका यात्रा करना मना है, किन्तु संजीव के जवानों की बदौलत हमें नौकायात्रा का भी लुत्फ मिल गया। धूप सर पर थी, झील का पानी धूप में नगीने सा चमक रहा था, आस पास पहाड़ इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे। मैंने कैमरा हाथ में लेकर बस क्लिक करना शुड़ु कर दिया, क्यों कि कोई भी दृश्य ऐसा नहीं था जिसे कैद करने की इच्छा न हो। नौका सैर के बाद हम लो झील के किनारे पानी में पैर डाल कर बैठ गए। झील का पानी बर्फ सा ठंडा और नमकीन था।  संजीव ने बताया कि एक किसी पहाड़ी नदी का पानी झील में आकर गिरता है, वह मीठी नदी है जिसमें मछलियाँ भी होती है, किन्तु ज्यों ही मछलियाँ पैंगाग झील में गिरतीं हैं, मर जाती है। जल पक्षियों की दावत हो जाती है। कहा भी जाता है ना कि बेहद खूबसूरती मारक होती है। झीलें मेरी जिन्दगी से जुड़ीं हैं। जन्म हुआ उदयपुर की झील के किनारे, बचपन बीता बड़े से ताल वाले भोपाल में, और अब जिन्दगी बीत रही है समुद्री झीलों वाले प्रान्त केरल में। लेकिन पैंगाँग झील जैसी मारक खूबसूरती तो कहीं भी देखने को नहीं मिली। मुझे लगा कि यदि पानी में डूब कर मौत के पास जाना हो तो पैंगांग से बेहतर कोई स्थान हो ही नहीं सकता। मैं झील के किनारे से पत्थर इकट्ठे करने लगी तो किरण बोली.. मैडम, आप पत्थर ले जाएँगी., लोग कहते हैं कि जहाँ के पत्थर ले जाओ, वहाँ लोट कर आना पड़ता है।

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तुम?

कब चली आई

थार की गोद छोड़

इन मलंगों के बीच

पहाड़ों के हैंगर पर लटकी

नीली चादर सी

दिपदिपाता है तुम्हारा बदन

नीलम सा

पहाड़ी चुम्बनों से

नील हुआ

ओ लावण्या!

ठीक नहीं इतना लवण कि

छटपटा जाएँ मछलियाँ

दुख जाएँ आँखे

 

मैं पहाड़ी दवात में

पेंगांग की स्याही में

कलम डुबा

भेजती हूँ सन्देश

समन्दर को

समन्दर! जाना नहीं रुकना

मेरे लिए रुकना दोस्त!

 

उसकी आँखे

नीले पानी में

मरी मछली सी डुबडुबाने लगीं

कितना आसान होता है

मौत भूला पाना

उतना ही, जितना कि

किसी जिन्दा को भुलाना

 

कितना ठंडा है पैंगाँग का पानी

मेरे डूबे पैर कहते हैं

बिल्कुल मौत सा

 

झील इस बार तुम

इस कदर नमकीन मिली?

 

 

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मैंने कहा..अगर ऐसा है तो मैं जरूर ले जाना चाहूँगी , कम से कम पत्थर लौटाने ही आऊँगी।

पैगाँग मे संजीव की पलटन के जवानों ने खाने पीने का इंतजाम भी कर रखा था । हम लोगों को खास भूख नहीं थी, बस दो चार कौरे भात खाकर हम लोग लौट गए। लौटते से पहले सेना के स्टाल से कुछ स्मृति चिह्न भी खरीद लिए।

लौटते वक्त हमे याक भी दिखाई दिए, उतार पर फिर सिर चकराने लगा, एक दो उल्टी हो कर तबियत सुधरी। नवाँग इतनी तेजी से गाड़ी चला रहा था कि उतरते वक्त मेरा सारा ध्यान सड़क पर लगा था जिससे मन ज्यादा मिचला रहा था।

घर पहुँचते पहुँचते शाम के सात बज गए, तब तक हम निढ़ाल हो चुके , नवाँग से कहा गया कि अब एक दिन आराम करेंगे, इसलिए अगली यात्रा पर एक दो दिन बाद ही चलेंगे।

 

28.6.2006

 

हमने केवल एक दिन के आराम की बात सोची थी , किन्तु दो दिन तक हम लोगों की तबियत काफी भारी रही, सिर में दर्द, उल्टियाँ, प्रदीप की तबियत तो इतनी खराब  हो गई थी कि आर्मी के डाक्टर की दवा लेनी पड़ी, रात तक प्रदीप की तबियत सुधरी तो मेरे सिर मे इतना भयानक दर्द शुरु हुआ कि हम घूमना ही भूल गए, इस बीच ड्राइवर को कान्टेक्ट नहीं कर पाए, स्वाभाविक था कि वे दूसरी सवारी ले लेते। लेह में टैक्सी वालों की यूनियन बड़ी मजबूत है, सभी ड्राइवरों को उनकी इच्छा के अनुसार काम करना पड़ता है, वे भी इस बात का ख्याल रखते है कि किसी ड्राइवर को नुक्सान ना हो। नवाँग को फोन करने पर उन्होंने कहा कि वे किसी और पार्टी के साथ हैं, तो हमने फिर यूनियन के दफ्तर में फोन किया। थोड़ी देर में दोरजी नामक ड्राइवर हाजिर था। बात करने से मालूम पड़ा कि ये दोर जी सेना में काम करते हैं, घर की टैक्सी है, तो छुट्टियों में टैक्सी चलाते हैं। दोरजी पढ़े लिखे युवक थे।

आज हमने लेह के पास के गोम्फाओं को देखने का ही मन बनाया था। जैसे हेमिस और शै गोम्फा। हैमिस गोम्फा का लद्दाख का सबसे बड़ा और शक्तिशाली गोम्फा माना जाता है। कहा जाता है कि प्रादेशिक राजनीति में इस गोम्फा के लामाओं की काफी भूमिका रहती है। यह पत्थरों और ईंटों से बना विशालकाय गोम्फा है। भवन के खम्बों और छतों मे लकड़ी की शहतीरों का भी काफी प्रयोग किया गया है। चटख रंगो के प्रयोग के कारण भवन , दीवारें , खम्बे आदि सभी बडे खूबसूरत लगते हैं। आर्थिक दृष्टि से भी इस गोम्फा को मजबूत माना जाता है। मन्दिर के बाहर बहुत बड़ा आँगन जैसा अहाता है। जब हम पहुँचे तो हमने देखा कि बरामदों में कुछ वृद्ध लामा वाद्य यन्त्र, जैसे कि विशाल नगाड़े, बड़ीं सी तुरही और थाली जैसे बड़े मंजीरे ताल लय में बजा रहे थे। कुछ बड़ी उम्र के लामा युवा लामाओं को ताल पर नृत्य करना सिखा रहे थे। वे लोग हैमिस उत्सव की तैयारी कर रहे थे जिसमें मुखौटे पहन कर लामा लोग नृत्य प्रस्तुत करते हैं। एक कोने पर कुछ स्त्रियाँ सफेदा की लकड़ी से शहतीर बना रही थीं। ये शहतीर छत बनाने के काम आते हैं। हैमिस गोम्फा भीतर से भी काफी सुन्दर है। इसमें असख्य खूबसूरत बौद्ध प्रतिमाएँ हैं, कई तरह के तंके हैं। एक तंकें में जन्म मृत्यु के बीच पूरे संसार को एक चक्र में दिखाया गया है। एक चित्र बहुत विचित्र लगा जिसमें एक देव के अंक में एक अप्सरा सी सुन्दरी लेटी है, जिसके हाथ में कोई पात्र है, यह चित्र बौद्ध परंपरा की दृष्टि से समझ में नहीं आया, क्यों कि आमतौर से बौद्ध विहारों में मन्दिरो के समान शृगार रस वाले चित्र नहीं होते हैं। एक मूर्ति का चेहरा बड़ा भयानक था, आँखे मानो उबली पड़ी थी। संभवतः वह काल का चित्र हो। बुद्ध की सौम्य मूर्ति के स्थान पर रौद्र भंगिमा कुछ विचित्र जरूर लगी। भावनाएँ, भंगिमाएँ मानव जीवन से जुड़ी होती है , वे  किसी एक भाव से जुड़ी नहीं होतीं। अतः कोई भी दर्शन या धर्म मात्र एक भाव को जीवन का आधार नहीं बना सकता है।

 

हैमिस के बाद हम शै गोम्फा गए, यह भी एक पहाड़ी पर बना है। हम लोग जब काफी ऊपर चढ़ गए तब किसी ने बतलाया कि गोम्फा बन्द है, क्यों कि भोजन का समय है। हम लोग भी  भूखे थे, अतः गोम्फा खुलना का इंतजार किए बिना लौट आए। हम लौटने लगे तो सिन्धु नदी दिखाई दी, मन नहीं माना, लगा कि एक बार फिर पैर डुबो ले उस पावन जल में। तट पर गए तो पाया कि नदी में पहले की अपेक्षा पानी काफी ज्यादा था। संभवतः गर्मी से बरफ जल्दी पिघल रही थी, जिससे नदी का जल स्तर बढ़ता जा रहा था। आज नदी के पत्थर दिखाई तक नहीं दे रहे थे।

दोरजी से मैंने कहा कि मैं लद्दाखी घर अन्दर से देखना चाहती हूँ। दोरजी ने कहा कि मैं आपको अपने घर ले चलता हूँ। हमने बिना झिझक उसकी बात मान ली। दोरजी का घर लेह के बीच में ही था। गलियों से होते हुए हम दोर जी के घर पहुँचे, एक खूबसूरत सा बगीचा, फिर सीढ़ियाँ चर कर घर। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि लद्दाख वैसे ही ऊँचाई पर है तो लोग मन्दिर और घर आदि भी ऊँचाई पर क्यों बनाते हैं। शायद जब बर्फ गिरती होगी, उन दिनों ऊचाई उन्हें थोड़ी बचाती होगी। हमे घर के भीतर ले जाया गया। लद्दाखी घरों में घर का प्रमुख भाग रसोई होती है, जो संभवतः दुनिया की बेतरहीन रसोई होती है। रसोई में दो या तीन और कालीन की पट्टियाँ बिछी होती है, जिस पर कम ऊँचाई वाली खूबसूरत नक्काशी दार मेजे लगी होती हैं। इन पर अधिकतर ड्रेगब बने होते हैं। ये ज्यादातर लाल और काले रंग की होती हैं। मेहमान का स्वागत मक्खन दार काली नमकीन चाय और मोमोस से किया जाता है। जब हम दोरजी के घर पहुँचे तो उबके घर कुच मेहमान आए हुए थे, शायद दूर के रिश्तेदार। सबका चेहरा खिला खिला था सभी ने हमे देख कर जोर से जुले कहा। उनके सामने बिना डन्डी वाले चाय के प्याले रखे हुए थे। किरण ने हमे बतलाया था कि यदि आप को कोई चाय इन खास प्यालों में परोसे तो बहुत धीरे पीजिए, और पूरी खत्म मत करिए। प्याले को पूरा खाली करना अच्छा नहीं माना जाता है। हम लोग भी एक टेबुल पर बैठ गए। दौर जी की बहन , पत्नी और माँ काम मे लगी थीं,  रसोई के बीचोबीच खूबसूरत सा ओवन था, जिसपर भी  नक्काशी थी। अल्मारी में तरह तरह के बर्तन इतनी खूबसूरती से जमाए गए थे कि लगता था कि घर ना हो शो रूम हो। हमारा परिचय दोर जी के पिता जी से करवाया गया। वे भी कभी आर्मी में थे, आजकल परम्परागत टेबुलों पर खुदाई का काम करते हैं। दोरजी भतीजी दिल्ली मे मेडिकल की पढ़ाई कर रही है, वह भी वहाँ मौजूद दी। उसकी खूबसूरती देखते ही बनती थी। थोड़ी देर में हमारे सामने घर के बने बिस्कुट रख दिए गए और प्याले में चाय दी जाने लगी। मेहमानों के साथ दो नन्हें बच्चे थे, और सभी लोग उनसे खेलने में व्यस्त थे। हम लोग धीरे-धीरे चाय पीते रहे, थोड़ी देर में हमारे सामने गरमागरम मोमोस आ गए। चलने से पहले हमें छाँग भी पीने का मौका मिल गया। जितनी देर हम बैठे रहे, लोगो को हँसते मुस्कुराते देखते रहे।

सबसे विदा लेकर चले तो मन बड़ा खुश था।

 

 

थोड़ी देर बाजार से कुछ सामान खरीदने के बाद हम लोग डेरे पर लौट आए। दूसरे दिन हमे नुब्रा वैली जाना था, जिसके लिए हमे विशेष परमिट की जरूरत थी। नुब्रा वेलि में कम से कम एक रात तो बितानी होती है। क्यों कि दूरिया इतनी है कि बिना रुके काम नहीं चल सकता। संजीव रोल्वा ने हमे बताया कि वे परमिट के लिए अपना कोई आदमी जरूर भेज देंगे, लेकिन मिलते मिलते देर हो सकती है। और ऐसा ही हुआ। दूसरे दिन हमे करीब १२ के परमिट मिल पाया। हमे डर था कि दोर जी किसी और सवारी को लेकर चला जाएगा और हमें फिर नए ड्राइवर से बात करनी पड़ेगी।

 

29.6.2006

 

नुब्रा वेलि के लिए हम लोग जरा देर से ही निकल पाए, इसलिए दोरजी को चिन्ता थी कि यदि हम खरदुंगा ला २ बजे तक नहीं पहुँचे तो हमे वापिस लौटा दिया जाएगा। सुरक्षा को ध्यान में रख कर सेना ने यह नियम बना दिया है कि यह ला दोपहर तक पार कर लिया जाना चाहिए।  इसलिए खरदुँगा ला कम लोग चुपचाप बैठे रहे। दौर जी तेजी से गाड़ी खिंचे जा रहा था। और हम लोग पहाड़ों के नाजरों को परख रहे थे। नुब्रा वेलि लद्दाख ला सबसे खूबसूरत हिस्सा माना जाता है, क्यों कि यहाँ हरियाली अपेक्षाकृत ज्यादा है। साथ ही बरंफीले पहाड़ भी खूब नजर आते हैं। रास्ते भर हमें दूर से बर्फीली चोटियों वाली पर्वत शृंखला  दिखाई देती  रही। खरदुंगा ला से पहले एक प्राकृतिक दरवाजा सा दिखाई देता है जिसे देख ऐसा लगता है मानों किसी ने पहाड़ को काट कर दरवाजा बनाया हो। जब हम खरदुंगा ला पहुँचे तो करीब 2 बज गए थे, किन्तु आगे जाने का परमिट मिल गया। हम ने चैन से खरदुंगा पर फोटों खींची, काफी पी , और आर्मी की दूकान से कुछ स्मृति चिन्ह भी खरीदे। लद्दाख में खास जगहों पर , जहाँ पर आर्मी के कैम्प हैं, इस तरह के स्मृति चिन्ह मिलते हैं, जिन पर स्थान विशेष का नाम खुदा होता है। खरदुंगा ला 18380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है और सेना सुरक्षा की दृष्टि से इसका अपना महत्व है। शाम तक हम लोग दिस्तिक पहुँच गए थे।

दिस्तिक बाकी लद्दाख से  काफी अलग काफी हरा भरा स्थान है। जब पहाड़ और हरियाली मिल जाती है तो बेहद खूबसूरत हो जाती है। केरल में में जितनी हरियाली है, उतनी शायद ही किसी अन्य प्रान्त में होगी, किन्तु मुझे लगता है कि स्थान- स्थान की हरियाली में अन्तर होता है। रंगो की भी अपनी भाषा होती है। केरल में में जब अधिक बरसात होती है तो ऐसा लगता है कि बादल नारियल के दरख्तों के सिरे पर  आकर उलझ गए हों,  तब जमीन से आसमान तक एक अजीब सा साँवलापन छा जाता है। ऐसे में अन्तस विषाद रंग को धारण कर लेता है। मैं अक्सर सोचा करती हूँ कि यदि केरल में हरियाली के रंग पीले और लाल फूलों के छींटों से युक्त हो तो यह साँवलापन शायद कुच कम हो सके। जब मैं छत्तीस गढ़ गई थी तब बस्तर के जंगलों में पलाश खिल रहे थे, दरख्त लाल पत्तों से दहक रहे थे, उस वक्त मुझे छत्तीसगढ़ के जमीन के रंगों में रंगे दरख्त बेहद खूबसूरत लगे। यहाँ पर हरियाली पहाड़ों की जड़ पर खड़ी थी, इसलिए भूसर रंग को चटकीला बना रही थी। दिक्सित में हम ” ओल्थांग ” गेस्ट हाउस में ठहरे। यह पहाड़ी अँचल में एक खूबसूरत साफ सुथरी इमारत थी। एक स्मार्ट नेपाली लड़का बड़ी चतुराई से बात कर रहा था। हम लोग उस गेस्ट हाउस की खुबसूरत बगीचे का आनन्द लेने लगे। इसी बीच दोर जी अपनी बहन के साथ नमकीन चाय लेकर आ गया। डोरजी की बहन दिक्सित के सरकारी अस्पताल में नर्स थी। वह भी हमारे साथ लेह चलना चाहती थी, जिससे अपने बच्चों से मिल सके। लद्दाख में एक जगह से दूसरी जगह जाना इतना आसान जो नहीं है।

दूसरे दिन सुबह सवेरे हम आसपास की खूबसूरती और फिजा की ठंडक का आनन्द लेते रहे, 7 बजे तक दौर जी बहन के साथ हाजिर थे। हम होटल से खाना पैक करवा कर आगे की यात्रा को चल दिए। सबसे पहले हम हुन्दर गए। यहाँ पर एक गोम्फा है, जो अभी काफी जीर्णशीळ हालत में है, किन्तु कला की दृष्टि से अपूर्व है। गोम्फा कितना भी छोटा हो मूर्तियों की भव्यता देखने योग्य होती है। यह गोम्फा अधिकतर लकड़ी का बना था, वहीं जमीन से ऊपर उठा हुआ सा। इसे खोलने के लिए भी हमें लामा को खोजना पड़ा। यहाँ बुद्ध की बड़ी खूबसूरत प्रतिमा के दर्शन हुए। मैंने एक बात देखी है कि हर गोम्फा में बुद्ध और अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाएँ हैं , किन्तु सभी प्रतिमाएँ अपना अलग अर्थ और अस्तित्व रखती हैं, यहाँ लामा ने हम लोगों का चाय का प्रस्ताव भी रखा। लेकिन हमे आगे जाना था। हम लोग दिस्तिक कस्बे के बाजार से होकर हुन्दर के उस भाग की ओर गए जहाँ पर दो कूबड़ वाले  ऊँट  प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि जब सिकंदर आक्रमण के बाद लौट रहा था तो उसके कुछ सिपाही और ऊँट पीछे छूट गए। वे ऊँट ही सँख्या में बढ़ते- बढ़ते इतने हो गए कि आज इन ऊँटों की सवारी हुन्दर का एक बड़ा आकर्षण मानी जाती है।

 

ऊँट जितना सुन्दर दिखता है, उसकी सवारी उतनी ही कठिन होती है। वह घोड़े की तरह स्थिर नहीं चलता, उसकी पूरी देह ऐसे हिचकोले खाती है मानो हम समुद्र पर जहाजी सफर कर रहे है , जब वह उठता या  बैठता है तो लगता है कि मानों हम किसी विशालकाय लहर के ऊपर से गुजर गए हों।  15 मिनिट की सवारी के उन्होंने 100 रुपये  लिए , हमे मजा तो आया किन्तु  पन्द्रह मिनिट भी काफी भारी लगे। जब तब लगता कि गिर जाएँगे। आखिरकार सिकन्दर की सेना के वंशज ऊँट थे, इतने आसान कैसे होते?

ऊँट की सवारी के बाद हम लोग फिर दिस्तिक गए, यहाँ पर हमे गोम्फा में जाना था। यह पहाड़ी पर बना हुआ था, जिसपर चढ़कर गोम्फा तक पहुँचना हमारे लिए इतना आसान नहीं था। काफी चढ़ाई के बाद जब हम  गोम्फा पहुँचे तो पता चला कि गोम्फा का हर भवन के लिए अलग- अलग सीढ़ियाँ बनी हैं। प्रमुख मन्दिर काली के समकक्ष देवी का है, जिसमें रौद्र मुद्रा में मूर्ति थी। एक अन्य कक्ष में तो अनेक मूर्तियों को ढ़क रखा था, बताया गया कि वे मूर्तियाँ रौद्र भंगिमा की हैं जिसे साधारण आदमी देख भी नहीं सकता, केवल मन्दिर उत्सव के वक्त उनका लेहरा खोल दिया जाता है। यह गोम्फा करीब 350 वर्ष पुराना है, और यहाँ अभी भी काम चल रहा है। गोम्फा देखने में तो उतना वक्त नहीं लगता जितना कि ऊपर चढ़ने में लगता है। यहाँ उतरने चढ़ने में प्रदीप की तबियत काफी खराब हो गई थी, शायद ऊँट की सवारी का भी असर रहा होगा।

रास्ते में कई गोम्फा थे, जिसके बारे मे दोर जी ने कहा कि यदि हम चाहे तो देख सकते हैं। लेकिन हम अब सीढ़ियाँ चढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। इसके बाद हम गर्म पानी के झरने के पास गए, यहाँ पर नहाने के कक्ष बने हुए हैं, जहाँ पाइप से गरम पानी का आनन्द उठाया जा सकता है। हम लोग थके जरूर थे, किन्तु नहाने का आनन्द जरूर लिया, मै कुछ ऊपर तक गई, जहाँ पर प्रपात का पानी इकट्ठा होता था । मैंने देखा कि यहाँ की जमीन और पत्थर लाल ,  पीले कई रंगों के हो गए थे। शायद इस गरम धारा वाले जल में कई खनिज पदार्थ आते होंगे, जिसका प्रभाव मिट्टी और पत्थर पर भी पड़ा। मैंने यादगार की तौर पर कुछ पत्थर उठा किए।

 

लौटते वक्त एक दो महत्वपूर्ण गोम्फा रास्ते में पड़े, किन्तु प्रदीप को उल्टियाँ शुरु हो गई तो हमने लौटने का सोचा, लौटने के रास्ते पर बर्फ बिल्कुल सामने थी। कई पहाड़ों पर तो सड़क तक बिछी थी, मानो कि दूब हो, बरढ भी तरह तरह की होती है, जब यह पहाड़ से चूती है तो कभी कभी काँच के खिलौने की तरह आकृति बना लेती है। कभी पर बिल्कुल कच्ची, जैसे कि चुस्की बनाने के लिए कस दी गई हो, कभी ऐसी लगती है कि केक पर आइसिंग चढ़ी हो। दूर से देखने पर कुछ पहाड़ बर्फ से पूरी तरह ढ़के नजर आए तो कुछ पर बरफ इस तरह फैली हुई थी जैसे कि चाकलेट के केक पर आइसिंग।  हम श्योक की तरफ से लौट रहे  थे, इसलिए हमें बर्फ के विभिन्न रूप देखने को मिल रहे, हर क्षण पहाड़ चेहरा बदल रहे थे, फिजा काफी ठंडी थी। लग ही नहीं रहा था कि हम लेह की गर्मी झेल कर आएँ है। रास्ते में श्योक नदी मिली, जो दोनों घाटियों के बीच बहती है। कहते हैं कि सर्दियों में यह जम जाती है और लोग पैदल चल कर पार कर लेते है। यहीं पर हमे याक और कई घुमक्कड़ जाति के लोग भी मिले, उनके सफेद तन्तुओं और उनकी जिन्दगी झाँकना संभव तो नहीं हो सका, लेकिन मैंने उनके घुमक्कड़पन को, और अल्पता में सुख प्राप्ति वाले स्वभाव को मन ही मन प्रणाम किया। क्या हम किसी भी सुविधा को छोड़ सकते हैं? नहीं, मानो हमने अपनी आदमीयत के उपर मशीनी आवरण पहन लिया हो।

 

 

वापिस खरदुंगा वेलि में पहुँचे तो शाम हो गई थी, अचानक मौसम काफी बदल गया था। जरा सा बरसाती झौंका आया और बर्फ टपाटप गिरने लगी। मैंने खरदुंगा की चोटी पर बने गोम्फा पर चढ़ने की भी कोशिश की, लेकिन बर्फ पर पाँव फिसलने लगे, अन्ततः दोरजी की सहायता से मैं ऊपर चढ़ पाई, मैंने देखा कि वहाँ कंकड़ के कई ढ़ेर से हैं, मेरे पूछने पर दोरजी ने बतलाया कि लोग मान्यता पूरी करने के लिए इस तरह की ढेरियाँ बनाते हैं। जितना चढ़ना मुश्किल नहीं था, उतना उतरना मुश्किल हो गया। खरदुंगा पार करते करते मन में आश्वासन था कि चलो सभी रंग देख लिए लद्दाख के, गर्मी , हरियाली , बर्फ और सूखापन…, बिल्कुम लामा नृत्य की तरह , प्रकृति मुखौटे बदलती है, तरह- तरह की भाव भंगिमा दिखाती है। आदमी उसका आनन्द कम लेता है, शिकायत ज्यादा करता है। लदाद्ख से इतना तो सीखा जा सकता है कि आनन्द हमारे बिल्कुल करीब है, यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसको कैसे अपना बनाते हैं।

 

आज की यात्रा लेह की अन्तिम बड़ी यात्रा थी, परसों हमे जम्मू जाना था, जहाँ नेट पत्रिका कृत्या का वार्धिक मनाया जाना था।

 

अगले दिन एक जुलाई थी, और कृत्या को अपलोड करने का दिन, पूरे 13  महिनों में एक बार भी कृत्या को अपलोड करने में देरी नहीं हुई।  कृत्या के अंग्रेजी और हिन्दी दोनो खण्डों को मैंने केरल में ही अपलोड कर दिया था। केवल इँडेक्स पेज लोड करना था, जिससे से नया अंक लोगो के लिए खुल जाए। हम लोग लेह के बाजार में इंटर नेट की दूकाने देखने लगे। एक दूकान में घुस कर हमने बताया कि हम अपने लेपटाप से कनेक्शन चाहते हैं। उन्होंने इसका इंतजाम कर दिया,  मैंने पहले करेक्शन किए लिंक्स को चढ़ाना शुरु किया। यहाँ नेट बेहद धीमा था, किन्तु काम हो रहा था। लेकिन इंडेक्स पेज चढ़ा ही नहीं। अजीब सी समस्या, एफ टी पी फाइल दिखा रही थी कि पेज लोद हुआ है पर नेट पर पुराना लिंक ही आ रहा था। शायद उनके नेट सिस्टम मे खराबी थी। कमे काफी वक्त लग गया और काम नहीं हुआ। धमाका तो जब हुआ जब हमने पैमेन्ट की बात की, पता चला कि लद्दाख में एक मिनिट के लिए नेट का उपयोग करने के २ रुपये लगते हैं। दीमाग भन्ना गया… लूट की भी हद होती है। दूकानदार चण्डीगड़ का था, किन्तु रोना यही कि ..साहब साल में दो महिने का बिजिनेस ही तो होता है, नहीं कमाए तो क्या करे। यह बात किसी लद्दाखी के मुँह से सुनती तो बुरा नहीं लगता,लेकिन यहाँ मन जरूर खट्टा हो गया। सोचा कि खाना खा आते हैं, फिर कोशिश करेंगे खाना खाने एक होटल में घुसे, होटल ढाबे की शक्ल का था, कोई श्रीनगर का आदमी चला रहे था। यहाँ चीजों के दाम हद से ज्यादा थे,  एक पराँठे की कीमत 20 रुपये। कृत्या लोड ना हो पाने के कारण मन तो परेशान था ही यहाँ पर यह धाँधली देख मन झुँझला उठा और मेरी होटल वाले से बहस हो गई। मेरा कहना यही था कि यदि इस होटल का रखरखाव पाँच सितारा होटल जैसा होता तो मैं बेशक इतना पैसा देने को तैयार हो जाती, किन्तु इस तरह ट्यूरिस्ट को लूटना व्यापार नहीं कहा जा सकता। खेर हमने किसी तरह खाना खाया और बाहर आए। इस बार हमने फिर से कृत्या के इन्डेक्स पेज लोड करने की कोशिश की, किनतु सफलता नहीं मिली। अब तक हमने 350 रुपयेखर्च कर दिए थे, किन्तु कृत्या लोड नहीं हुई। मैंने परेशान होकर तिरुवनन्तपुरम में बैजू को फोन किया, बैजू ने मुझे कृत्या लोड करना सिखाया था। और समस्या बताते हुए गुजारिश कि वे केरल से इडेक्स पेज चढ़ा दे। हमने मेल में सारी सूचनाएँ भी दे दी थीं। अब हम पैदल ही लेह के बाजार में चक्कर लगाते हुए लौटने की तैयारी करने लगे।

देखा तो लेह का प्रमुख बाजार में हर चीज बेहद महंगी थी, लेकिन गलियों में घुस कर जो बाजार आए, वहाँ चीजे अपेक्षाकृत सस्ती थी। पिछले दिनों में हमने किरण के साथ कुछ शापिंग कर ली थी। इसलिए ज्यादा कुछ नहीं खरीदना था।

 

शाम को लौटी तो मन उदास था, यदि कृत्या लोड नहीं हुई तो जम्मू में क्या दिखाया जाएगा?क्या सारी मेहनत बेकार चली जाएगी? .. इतने अच्छे दिन बीते हैं, क्या हम कड़वाहट को लेकर घर लोटेंगे, हे बुद्ध, मैने तो तुम्हे प्रणाम किया है, हमेशा ही, फिर ऐसा क्यों?

शाम को हमने फिर बैजू को फोन किया तो उन्होंने कहा कि अभी तक उनके पास कोई मेल ही नहीं आया है।

हमने फोन पर ही पासवर्ड आदि बताया, करीब 20 मिनिट बाद फोन किया तो बैजू ने कहा कि इंडेक्स पेज चढ़ गया है। समस्या तो उन्हें भी समझ में नहीं आई, उन्होंने बस एफ. टी पी फाइल से लोड कर रिलोड कर दिया, और काम हो गया। हमने चैन की सांस ली और जम्मू में अग्निशेखर को फोन किया।

 

अगले दिन जब हम एयरपोर्ट पहुँचे तो एक दो कर्मचारी स्त्रियों ने पास आकर कहा…जुले..

एक ने पूछा, मैडम , हमारा लद्दाख कैहा लगा, मैंने जवाब दिया बिल्कुल आपकी मुस्कान जैसा..और हम सब हँस दिए

 

हवाई जहाज में बैठ कर मैंने कहाः– जुले लद्दाख, देखो मैंने तुम्हारे पत्थर लिए हैं, वापिस जरूर बुलाना

 

घाटियाँ बोली जुले, आसमान बोला जुले,

हवाई जहाज के पंख उड़ते- उड़ते जुले…. जुले कहते गए

 

जुले- जुले -जुल लद्दाख!