वेद में वैज्ञानिकता

by डा. रति सक्सेना——

 

अक्सर हम ज्ञान के विकास के क्रम को पहचानने में भूल कर देते हैं। जैसे कि जब हम विज्ञान की बात करते हैं तो सीधे सीधे यह सोच लेते हैं कि विज्ञान एक अलग विधा है, जो दर्शन के विरोध में निकल कर चली आई है, जबकि स्थिति यह है कि विज्ञान और दर्शन दोनों का एक ही मूल स्वभाव है, और वह है अपने को, अपने परिवेश को और समस्त गोचर अगोचर को समझने बूझने की चाह।

चिन्तन से  सृष्टि में अपनी स्थिति को अन्य चराचरों की उपस्थिति में समझना मानव होने की प्रक्रिया का आरंभ था। चिन्तन  के कारण मानव का अस्तित्व सृष्टि में आज भी बरकरार है। यही उसकी आत्मिक और भौतिक उन्नति का आधार है। मानव के अस्तित्व के लिए दो तरह के चिन्तन की आवश्यकता होती है,  आध्यात्मिक और भौतिक । ईशोंपनिषद में कहा गया है कि जो मनुष्य को दोनों तरह की विद्याओं  को सीखता है, वह मृत्यु को जीत कर अमृतत्व को पार कर लेता है, यहाँ अविद्या का अर्थ विद्या का अभाव नहीं, अपितु भौतिक विद्या है।

 

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्यां मृत्यु तीर्त्वा विद्यां अमृतम अश्नुते।। ईश – 11

 

वैदिक साहित्य ओल्ड टेस्टामेन्ट,  न्यू टेस्टामेन्ट, अथवा कुरान या अन्य धर्म ग्रन्थों की तरह  मात्र एक उपदेशपरक ग्रन्थ या  पुस्तक नहीं है। यह एक विशद एवं जटिल साहित्य संग्रह जो अपने भीतर अनेक अन्तर्विरोधों को समेटे हुए है। इस सम्पूर्ण साहित्य को चार प्रमुख रूप में विभाजित किया जाता रहा है- संहिताए, ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद। सामान्यतया जब हम वेद नाम लेते हैं तो हम ऋग्वेद का उल्लेख करते हैं, पारम्परिक रूप से अथर्ववेद को महत्वपूर्ण स्थान दिया नहीं जाता है,  और सामवेद , यजुर्वेद को ऋग्वेद का अंग ही मान लिया गया है। इसी कारण से अधिकतर विद्वान  ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों को नकार देते हैं। स्थिति यह भी है कि ऋग्वेद भी  स्वयं में एक पुस्तक नहीं, अपितु अनेक सूक्तों का संग्रह है जिनमें से अधिकतर विभिन्न ऋषियों द्वारा रचित हैं। ऋग्वेद में प्रत्येक मण्डल एक एक कुल से सम्बन्धित है वस्तुतः संहिता का अर्थ ही भिन्न- भिन्न सूक्तो को एक सूत्र मे पिरोना है।  यही स्थिति अथर्ववेद की है जिसमें बीस काण्ड हैं, और विषय का फलक बड़ा व्यापक है। इसमें एक और देहवाद उभर कर आया है तो दूसरी और वैदिक आध्यात्म की भी नींव रखी गई है, प्राण सूक्त , स्कंभ सूक्त आदि परवर्ती औपनिषदिक अध्यात्म की नींव यहीं रखी गई दिखाई देती है। 2- दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये ऋचाएं किसी तरह का उपदेश ना होते हुए विभिन्न विषयों से जुड़ी हैं,  जिनमें सहज प्रार्थनाओं एवं जीवन- दर्शन के अतिरिक्त जीवन से जुड़ी अनेक छोटी- बड़ी भावनाएं हैं, अभिचार और चिकित्सा सम्बन्धी मन्त्र भी  कर्मकाण्ड के बारे में नहीं बताते हैं, सभंवतया इसलिए कि ये मन्त्र  काफी वक्त स्मृति के जरिए सुरक्षित रखे गए, जिससे उन मन्त्रो के साथ जुड़ी मूल कथाएं, कर्मकाण्ड आदि विस्मृति में लुप्त हो गए। 3- यद्यपि वैदिक साहित्य को स्थूल रूप में चार खण्डों में विभाजित कर दिया गया है, किन्तु उनका रचनाक्रम विभाजन के समान सहज नहीं हैं। यदि ऐसा सोचा जाए कि पहले सभी संहिताएं रचनाएँ रची गई, फिर ब्राह्मण ग्रन्थ ,फिर आरण्यक उपनिषदें आदि, तो यह पूर्णतया असत्य तथ्य होगा। निसन्देह संहिताओं के रचना -काल में ही ब्राह्मण ग्रन्थों की रचनाएँ आरम्भ हो गईं होंगी। शतपथ ब्राह्मण का काल अथर्ववेद के समकक्ष भी माना जाता है। अतः जितनी सरलता से वैदिक साहित्य का विभाजन कर दिया गया है उतनी सरलता से उनके निर्माण- काल को विभाजित करना असम्भव है। 3- ध्यातव्य है कि संहिताएँ अपने में पूर्णतया स्वतन्त्र है, लेकिन ब्राह्मण ग्रन्थ उन ऋचाओं का कर्मकाण्ड में पुनर्पाठ है।आरण्यक एवं उपनिषदें कर्मकाण्ड का विरोध में उभरे स्वर हैं जो दैविक क्रियाओं को दैहिक क्रियाओं से परे करते हुए आत्मीयता से जोड़ते हैं। वैदिक साहित्य के भीतर का यह अन्तरद्वन्द्व परवर्ती संस्कृत साहित्य में स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है जब एक ही भूमि से छह से भी ज्यादा दार्शनिक वैचारिक धाराएँ प्रवाहित होने लगीं।

ऋचाओं में कहीं स्पष्ट रूप से तो कहीं अस्पष्ट रूप से  सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में चिन्तन दिखाई देता है।  प्रसिद्ध “नासदीय सूक्त ” ( ऋग्वेद) में कहा गया है– सृष्टि से पूर्व न सत् था, न असत्, न रजस् था न व्योम। किसी आवरण से व्याप्त गंभीर “अंभ” ( जल) था । न मृत्यु थी न अमृत, न रात थी न दिन। उस वातहीन अवस्था में केवल “तदेक” था, उससे परे कुछ भी नहीं था। इस तदेक के अतिरिक्त “अप्रेकत सलिल ” था जो गूढ़ अंधकार से लिपटा था–

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परोयत।

किमावरीवः कुहु कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गंभीरम्।।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः  ।

आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्मद्धान्यन्न परः किं चनास।

तम आसीत्तमसा गूळहमग्रेच्प्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।।  ऋक् 10.129.1,2,3

अथर्ववेद में इसी भाव के मन्त्र बिखरे पड़े हैं‍

असति सत् प्रतिष्ठितम सति भूतं प्रतिष्ठितम।भूतं ह भव्यं आहितं

भव्यं भूते प्रतिष्ठितम।  अथर्ववेद-17/1/19

, सलिल के व्याकृत होने पर ,तदेक ने अपने समग्र मानसिक बल को एकाग्र किया और प्रथम रेतस के रूप में “काम” को जाग्रत किया-

कामस्तदग्रे समवर्ताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।

सतो बंधुमसति निवन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयोमनीषा।। ऋक्. 10.129.4

इसे वैज्ञानिक बिग बेंग थ्योरी से जोड़ कर देखा जा सकता है।

अथर्ववेद में इसी “काम” के विभिन्न व्याकृत व लोक सम्मत रूपों को स्पष्ट किया गया है।  तदेक का मानस रेतस् “काम”  से लौकिक काम उत्पन्न हुआ जिसमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष निहित थे। इस काल तक वैदिक ऋषियों ने यह भली भांति समझ लिया था कि जितने भी ग्रह या नक्षत्र ऊपर आसमान में दिखाई देते हैं, उन सबमें कोई ना कोई तारतम्य अवश्य है, वे ही सिद्धान्त जिसे theory of relativity  के माध्यम से आईस्टाइन ने माना, और जो वर्तमान में फिजिक्स का महत्वपूर्ण सिद्धान्त माना जाता है। जैसे कि काल और स्थान  (time and space) के बारे में  दार्शनिकों और वैज्ञानिकों दोनों ने चिन्तन किया। एशियन दर्शन, विशेष रूप से वैदिक ऋचाओं और उपनिषदों में काल और स्थान सबसे अधिक अध्ययन का विषय रहा है। वही विज्ञान का मूल आधार ही पृध्वी, वातावरण के साथ अन्य खगोलीय नक्षत्र भी रहे हैं।माडर्न फिजिक्स के अध्येताओं ने विज्ञान के साथ रहस्यात्मकता को भी समझने की कोशिश की है,”क्वान्टम थ्योरि” और “थ्योरि आफ रिलेटिविटि”के साथ इस बात को आइन्सटाइन ने तक ने कहा है ब्रह्माण्ड को समझने के लिए विज्ञान के साथ साथ  बहुत कुछ ऐसा रहस्यात्मक है, जिसे समझना उतना ही आवश्यक है। निसन्देह रहस्यात्मकता, दार्शनिकता का ही दूसरा रूप है। आइन्स्टाइन की थ्योरि आफ रिलेटिविटी और मिंकोस्की ( Minkowski’) की टाइम और स्पेस को हम दर्शन के काफी करीब पाते हैं।

अथर्ववेद में काल के लिए एक ऋचा है,   जिसमें काल, यानी टाइम की रहस्यात्मकता के साथ उसको समझने की कोशिश सी प्रतीत होती है।  AV.10.8.1-17

कालो अश्वों वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो अजरो भुरिरेताः। अवे. का. 19.सूक्त 53. म. 1

पूर्ण कुम्भोSधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः। अवे. का. 19सूक्त 53. म 3

पिता सन्नभवतं पुत्र एषां तस्मादं वै नान्यत् परमस्त तेजः। अवे. का. 19सूक्त 53. म.4

इसी तरह अथर्ववेद का प्राण सूक्त परवर्ती दर्शन की भावभूमि को उर्वर करता है। प्राण हंस के समान एक पाँव उठाता है और एक जीवन रूपी सलिल पर रखे रहता है। यदि वह दोनों पाँव उठा ले तो न कल होगा ना दिन और रात।  यहां भी थयोरि आफ रिलेटिविटी को समझा जा सकता है।

एकं पादं नोत्खिदति सलिलाध्देस उच्चरन।

यदंग स तमुत्खिदेन्नैवाद्ध न श्वः स्यान्न रात्री नाहः स्यान्न व्युच्छेत् कदा चन।। अवे.

स्कंभ की अवधारण ऋग्वेद में स्थापित हुई है और अथर्ववेद में पल्लवित हुई है। ऋग्वेद में वरुण के लिए कहा गया है- ” स्कम्भेन वि रोदसी.. अधारयत्” ( ऋ्गवेद. 8.41.10   ) अथर्ववेद में एक पूरा सूक्त स्कंभ सूक्त के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ पर स्कम्भ की अवधारणा ना केवल द्यौ  और धरती के मध्य के आधार के रूप में दिखाई देती है अपितु परवर्ती उपनिषदिक दर्शन की भावभूमि भी तैयार दिखाई देती है। जो भूत -भविष्य सभी में प्रविशित है,  जो अपने एक अंग को सहस्र कर लेता है, जिसमें ये समस्त लोक, कोश, आप, ब्रहम- जन निहित है , जिसमें सत्य और असत्य दोनों है, बताओं तो वह कहाँ है?  होमर में अतलस नामक दैत्य का वर्णन है जो कंधों पर धरती और आकाश को उठाए है। लेकिन हम अथर्ववेद में स्कम्भ का वह दार्शनिक रूप उभर कर आया है जो परवर्ती दार्शनिकता की भावभूमि  बनी। हम यह समझते हैं कि स्कंभ नामक किसी चीज स्थिति नहीं है, लेकिन उस काल के लोगों के मन में एक शंका तो उठी थी कि नक्षत्र चांद तारे आदि कहीं किसी ना किसी तरह से अवस्थित हैं, वे गिरते नहीं है, तो एक तरह का कोई तत्व है, जो सबको अपने अपने स्थान पर अवस्थित रखते हैं.

 

कियता स्कम्भः प्रविवेशतन्न यत्र प्राविशतं कियत् तद् बभूव।

एकं यद्गमकृणोत् सहस्रधा कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र।।

यत्र लोकांश्च कोशांश्चापो ब्रह्म जना विदुः।

असच्च यत्र सच्चान्तः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।। (अथर्व. का.१०, सूक्त४, सूक्त ७ म. ९-१० )

पाइथोगोरस ने कहा है ‍  “All things are numbers”. दरअसल गणित और दर्शन मिलकर ही ब्रह्माण्ड की गुत्थियां सुलझा सकते हैं।  Gottfried Wilhelm Leibniz (b. 1646, d. 1716) जो जर्मन दार्शनिक और गणितज्ञ थे,  ने कहा भी है कि – किसी भी तर्क को साबित करने के लिए उसे उतना मूर्त बनाना होता है, जितना की गणित है, जिससे त्रुटियों  पर तुरन्त ध्यान जाये। जिससे जब भी कोई विवाद हो,  हम उसे गणित की तरह साबित कर सकें।

यदि हम देखते हैं कि ऋचाओं में शून्य का प्रयोग परम ब्रह्म को समझने के लिए किया है तो हमें यह समझना चाहिये कि कुछ अनबूझी गुत्थियों को समझने के लिए इस तरह के प्रतीकों की आवश्यकता समझ में आने लगी थी। शून्य पूर्ण रूप से परिपूर्णता को सूचित करता है, साथ में यह रिक्त भी है, यानी कि स्वयं में पूर्ण होते हुए भी अन्यों से विभक्त है। इसी शून्य के अपर रूप को बौद्ध ने शून्यवाद में स्थापित किया है।

यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में याज्ञिक क्रियाओं मो मूर्त रूप देने के लिए संख्याओं और  ज्यामित्री करना सीख लिया गया। जैसे कि वैदिक ऋचाओं की भावाभिव्यकति कुछ भी रही हो, लेकिन उनके कर्मकाण्ड के रूप में प्रयोग के लिए बड़े कठोर नियम स्थापित किए गए। यहाँ भाषा की शुद्धत्ता ओर उच्चारण की स्पष्टता को चिह्नित किया जाता है। उद्दात्त , अनुद्दात्त और स्वरित आदि का प्रयोग हमें वैदिक ऋचाओं में कठोरता से दिखाई देता है। साथ ही ऋचाओं के साथ छन्द का होना देवता और ऋषि के बराबर महत्वपूर्ण है। याग वेदी बनाने ईन्टों की संख्या निर्धारित होती थी। याग क्रिया के लिए एक अलग शास्त्र का निर्धारण हो गया था, जिसे शुल्ब सूत्र का नाम दिया जाता है। यहाँ रेखागणित के कई नियमों का पालन किया गया था। विभिन्न आकारों के लिए संज्ञा निर्धारित कर दी गई थी। जैसे कि तिल, आंगुल, प्रादेशः, वितस्ति, पदं, जानु , शम्या, युगम, पुरुषः अक्षः ।

याग बनाने के लिए ना केवल मापन और गणन प्रणाली का आरम्भ किया गया, अपितु नक्षत्र और मौसम को समझने के लिए अन्य शास्त्र की रचना की गई। सबसे महत्वपूर्ण तो सूत्र साहित्य की संरचना है, यूरोप में फार्मूलों का प्रयोग इस साहित्य के काफी बाद की स्थिति है।

इसके अतिरिक्त हम यह देखते हैं कि इस काल तक लम्बे रास्ते से व्यापार का आरम्भ भी हो चुका था। अथर्ववेद में अथर्वा पण्यकाम ऋषि द्वारा रचित कई सूक्त हैं जिनमें व्यापार की उन्नति के लिए प्रार्थना की गई है। पण्यकामः शब्द का अर्थ धन प्राप्ति से सम्बन्धित है। एक मन्त्र में स्पष्ट रूप से वाणिज्य कर्म के लिए बड़ी यात्राओं का वर्णन है। — “हे इन्द्र! मैं तुमसे व्यापार के लिए पूछता हूँ, तुम हमारे इस कर्म में हमारा मार्ग दर्शन करो। मार्ग में अनेक दस्यु या जानवर मिलेंगे, तुम हमारी रक्षा करना। जिन पन्थों , मार्गों में बड़े बड़ देवता विचरण करते हैं, उन मार्गों से हम धन लेकर घर आए। मैं अग्नि प्रज्वलित करके घत की धारा के साथ आहुति देता हूँ जिससे मैं शीघ्र गमन कर सकूँ और धन से परिपूर्ण हो सकूँ। हम मार्ग पर दूर तक जाएँगे, अतः अग्नि हमारे ( अनजाने   )पापों को क्षमा करे। जिस मूल धन से मैं व्यापार करता घूमता, यदि उसे कुछ देवता गण चाहते हैं तो तुम उन्हे हविष से सन्तृप्त कर दो।  निसन्देह पणिगण अथवा वणिक गण सदैव इन्द्र के शत्रु रहे हों, यह आवश्यक नहीं।

 

इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि सन ऐतु पुरएता नो अस्तु।

नुदन्नरातिं परपन्थिनं मृगं स ईशानो धनदा अस्तु मह्यम्।। १।।

ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावा पृथवीं संचरन्ति।

ते मा जुषन्तां पयसा गषतेन यथा क्रीत्वा धनमा हराणि।।२।।

इध्मेनाग्न इच्छमानो धृतेन जुहोमि हव्यं तरसे बलाय।

यावदीशे ब्रह्मणा वन्दमान इमां धियं शतसेयाय देवीम्।।३।।

इमामग्ने शरणिं मीमृषो नो यमध्वानमगाम दूरम्।

शुनं नो अस्तु प्रपणो विक्यश्च प्रतिपणः फलिनं मा कृणोतु।

इदं हव्यं संविदानौ जुषेथां शुनं नो अस्तु चरितमुत्थितं च ।।४

येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः।

तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोSग्म्ने सातध्नो देवान् हविषा निषेध।। ५   (काण्ड3,अध्याय3,  सूक्त 15)

ऋग्वेद के मन्त्र में अग्नि से प्रार्थना है कि वह आयस के पुर में रहने वालों की रक्षा करे।  इसका अर्थ यह हुआ कि आर्य जन भी पुर में रहते थे। यही नहीं दिवोदास का विरोध शत्रु शंबर जैसे अनार्य ही नहीं , यदु और तुर्वस जैसे आर्य भी कर रहे थे।  ( ऋ. 1.58.8)इसका यह अर्थ भी है कि ऋ्ग्वेदीय काल में ही भवनों में लोहे का प्रयोग होने लगा था, यह किले या गढ़ी के आकृति का भवन भी हो सकता है, जिसमें जन बाहरी आक्रमण के वक्त जाकर रह सके।

ऋग्वेद में दो सूक्त बेहद महत्वपूर्ण है, जिनमें अश्विन कुमारों से प्रार्थनाएं हैं, (ऋग्वेद – 1.116.1-25) इन प्रार्थनाओं में अनेक घटनाओं का एक के बाद एक वर्णन करते हुए अश्विन कुमारों की प्रशंसा की गई है, जैसे कि उन्होंने विमादा के पुत्र के लिए तेज गति वाले रथ और नुकीले तीरों के साथ पत्नी से मिलवाया, जिसनें सौ पतवारों से चलने वाली नौका को भेज कर यम से बचाया, तुर्ग द्वारा समुद्र में छोड़ दिए गये भुज्यु को  सज्जित जहाज से तीव्र गति से तट पर ले आये। तुम्हारा जहाज सौ चप्पुओं से चलने वाला था। भुज्यू को समुद्र से लाने के लिए अश्विनी कुमारों को तीन दिन और तीन रात लगे। तुम प्यासे गौतम के लिए सैंकड़ों प्रपात खोल दिए। जब एक युद्ध में विपाला की एक टंग कट गई तो तुमने उसे लोहे की टांग लगा दी। अश्विनी कुमार का सम्बन्ध स्वास्थ्य से माना जाता है। इस प्रार्थना में विभिन्न घटनाओं का उल्लेख मात्र करके प्रशंसा की गई है, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इन प्रार्थनाओं में कुछ सूचना! मिलती हैं, कि उस काल तक लोहे के जहाजों का प्रयोग भी होने लगा , और सौ चप्पुओं से चलने वाली नौकाए भी बनने लगी। ऐसी नौकाओं का उपयोग केरल में युद्ध के समय काफी समय तक होता रहा। चीन में भी इनके प्रयोग दिखाई देते हैं। साथ ही नदियों में बांध बनाने की तकनीक भी समझ ली गई। और सबसे महत्वपूर्ण बात यहकि नकली टांग भी बनाई जाने लगी।

अथर्ववेद में जल के व्यवहारिक पक्षों का पहले ही काण्ड से उल्लेख हुआ है और अनेक सूक्तों जल के विभिन्न पक्षों की अवतारणा करते हैं। वे परुस्थलो, जलसम्पन्न, कूप जल, कुम्भ जल सभी के सुख की कामना करते हैं। इस मन्त्र से यह तो ज्ञात हो जाता है कि इस काल की संस्कृति नदी विहीन से लेकर  नदी युक्त दोनों स्थानो तक विस्तृत थी। कूप जल की जरुरत वहां पर थी, जहाँ नदी का जल उपलब्ध नहीं था और कुम्भ जलनिसन्देह नदी से भर कर लाया गया था। इस सूक्त में जल को राष्ट्र की शक्ति के रूप में माना गया है। यही नहीं वे वर्षा के जल को भी महत्वपूर्ण मानते हैं कि काफी कुछ इलाकों में कृषि वर्षा जल पर निर्भर रही होगी। यही नहीं अथर्ववेद में सिन्धु शब्द बहुवचन वाचक है जिससे यह भी ज्ञात होता है कि इस काल तक सिन्धु शब्द नदी वाचक बन  गया था़।   यहाँ नदी के विभिन्न नामों पर भी बेहद रुचिकर प्रकाश डाला गया है। नाद करते हुए बहने के कारण नदी नाम,  वरुण के पुकारने पर तुम एक साथ मिल कर नृत्य करते हो, अतः तुम्हारा नाम अपः पड़ा. देव की शक्ति से उदन , उपरिगमन किया अतः उदक नाम पड़ा।

शं नो आपो धन्वन्याः शमु सन्त्वनूप्याः शंनः खनितरिमा आपः

शमु याः कुम्भ आभृताः शिवा सन्तु वार्षिकी।। (का.१. अ.२. सू ६)

यददः संप्रयतीरहावनदता हते।

तस्मादा नद्यो नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः।।

यतं प्रेषिता वरुणेनाच्छीबं समवल्गत।

तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनुष्ठन।।

अपकामं स्यन्दमाना अवीवरत वो हिकम्।

इन्द्रो वः अक्तिभिर्देवीस्तस्मादवार्नाम वो हितम।।

एको वो देवोSप्यतिष्ठत्, स्यन्दमाना यथावशम्।

मानव व प्रकृति में सामंजस्य तो ऋग्वैदिक काल से स्थापित हो गया था, किन्तु अथर्ववेद में इस सम्बन्ध को जिन्दगी की दृष्टि से स्थापित करने की कोशिश की है। उन्होने अपने आसपास के पर्यावरण पर ध्यान केन्द्रित किया। स्वच्छ जल, वायु, भोजन की कामना बलवती बनी। वे कामना करते रहे कि नदियाँ अच्छी तरह से बहें, हवा चले, पक्षी सुख रहें, दिन व रात सुखकारी बने रहें। ( अथर्व. 1.50.1, 7.69.1)तत्कालीन जन ने यह सत्य पहचान लिया था कि स्वास्थ्य मात्र रोगों की अनुपस्थिति नहीं होता,बल्कि कुपोषण, गरीबी, भुखमरी आदि भी रोगों का एक प्रकार है। अथर्ववेद में औषध या वनस्पति उत्पादन पर विशेष बल दिया गया है- वे कहते हैं कि – इन्द्र हल की रेखा को ग्रहण करें, पूषा रक्षा करें, धरा गाय के समान पयस्पती हो, हल भूमि खोदें, कृष्क बैलों के पीछे चलें, इस तरह उत्तम औषध पैदा हो-इन्द्र सीता नि गृह्णातु तां पूषामि रक्षतु। /सा नः पयस्वती दुहामुत्तरां समाम्।।/शुनं सुफला वि तुदन्तु भूमिं शुनं खीनाशा अनुयन्तु वाहान्।/शुनाशीरा हविषा तोषमाना सुप्पिला ओषधीः कर्तमस्मै।। अथर्व. 3.17.4,5

अथर्ववेद में कृषि के साथ वाणिज्य, अच्छा मकान आदि को भी महत्व दिया गया है। सर्वांगीण सुख के लिए सभी ओर से विकास होना आवश्यक है। यहाँ पर हम पुनः अथर्ववेद के कृषि सम्बन्धी सूक्तों का अवलोकन करे तो यह स्पष्ट पता चलता है कि इस काल में कृषि में प्रयुक्त उपकरणों का काफी विकास हो चुका था। यह कृषि अनाड़ियों की कृषि नहीं थी। अथर्ववेद में हलों को जोतकर बेलों के द्वारा जमीन जोतने में जुए को सही तरीके से बनाने , बैलों के कंधो पर रखने , रज्जू के सही प्रयोग से लेकर बीज- वपन  की क्रिया तक का विस्तृत वर्णन है।

सीरा युज्जन्ति कवयों युगा वि तुन्वते पृथक्

धीरा देवेषुग्नयौ।।१

युनक्तु सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम।

विराजः श्नुष्टिः सभरा असन्नौ नेदीय इतं सृण्यः पक्वमा यवम्। (का.३, अ ४, सू १८) एवं  सूक्त के अन्य मन्त्र।

अथर्ववेदीय मंत्रों का आज तक जो महत्व है उसका प्रमुख कारण उसका औषध विज्ञान है। इस काल में जितनी वनस्पतियों के गुणों को पहचाना गया, उतना शायद ही किसी अन्य काल में संभव हुआ होगा। इस युग में न केवल वनों से औषध चुनी जाती थी बल्कि उनका उत्पादन भी होने लगा था।(अथर्व. 6.21.2) रोगों के उपचार के लिए विशिष्ट औषध प्रयोग का ज्ञान भी विकसित हो चुका था। जैसे राजयक्ष्मा के लिए शतवार,( अथर्व. 20.96.1-24) कुष्ठ के लिए जीवला,( अथर्व. 19.39.1-10) यक्ष्मा के लिए गुल्गुलुः ( अथर्व. 19.38.1)आदि का प्रयोग होता था। यहाँ तक दर्भ नामक ऐसी औषध का उल्लेख भी मिलता है जिसके प्रयोग से व्यक्ति सबका प्रिय बन जाता है। (अथर्व. 19.32.1-10) तत्कालिन औषध ज्ञान पर ही आयुर्वेद शास्त्र की नींव पड़ी। यह भी संभव है कि मनुष्य ने इन औषधियों का ज्ञान पशुओं की आदतों को समझते हुए किया हो। फशुपक्षियों की आदतें समझते हुए। अथर्ववेद के दसवें काण्ड में एक सम्पूर्ण सूक्त है जिसमें मानव के अंग-प्रत्यंग का वर्णन है। यद्यपि पहली दृष्टि से ऐसा लगता है कि चिन्तक एक-एक अंग के निर्माण के लिए आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं किन्तु ध्यान से देखने से प्रतीत होता है कि यह आश्चर्य अबोधपन का सूचक नहीं है, अपितु शरीर -विज्ञान के अध्ययन द्वारा सूक्ष्म तत्व सीख पाने के आल्हाद का सूचक है।  वे तलवे से शुरु करके हर एक जोड़ के बारे में जानने की कोशिश करते हैं , इसके बाद माँस -पेशियों और धमनियों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। अन्ततः मस्तिष्क के विभिन्न अंग जैसे कपाल, ललाट, ककाटिका और हनु का का अध्ययन किया जाता है। अन्तः माँसपेसियों की सूक्ष्मता, वाणी क्षमता, बुद्धि उपलब्धि आदि के बारे में पहचाना जाता था। सम्भवतः उनके नाम भी उनके गुणों के अनुरूप रखे जाते रहे होंगे।विभिन्न औषधियों का उत्पादन उनके उपयोग को दृष्टि में रख कर किया जाता होगा।कुछ मंत्रों में तो विभिन्न औषधियों के गुणों और नामों का इस तरह उल्लेख है जैसे कि चिकित्सा विद्या का शिक्षण किया जा रहा हो। उदाहरण के लिए-जीवलां नद्यारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्। अरुन्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेद्मस्मा अरिष्टतान्ये। अवकोष्वा उदकात्मान औषधयः। व्युषन्तु दुरितं तीक्ष्णशृंगगमः ।। अथर्व.8.7.9

रोग के कारण रोगाणुओं को भी पहचानने की कोशिश हुई,   मनुष्य पर माँसभक्षी रोगाणु सोते या जागते आक्रमण कर देते हैं, अग्नि की कृपा से वे पीडा पाएँ तथा पुरुष को निरोग बनाए। दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्यात् यातूनां शयने शयनम् ।तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदो इयमस्तु ।। अवे. 5.29.9.            इसी तरह प्रसव से सम्बन्धित प्रकरण मिलता है। छह मन्त्रों के गुम्फ को देख कर ऐसा लगता है मानो कोई प्रसवासन्न नारी जटिल स्थिति से गुजर रही है ।भिषकगण उसके प्रसव को सरल बनाने के लिए पूरा प्रयत्न कर रहें हों । प्रत्येक मन्त्र प्रसव की एक-एक क्रिया की व्याख्या करता है । जैसे आसन्न प्रसवा नारी के अंग कोमल हो जाएँ ,चारों दिशाएँ व भूमि तथा सभी दिव्य शक्तियाँ गर्भ को सुरक्षित रखें .योनि का मुख खुल जाए और नारी हिम्मत से जन्म दे ।बालक के जन्म के बाद शीघ्रता से  जरायु नीचे गिरे .कुमार व जरायु अलग-अलग हो जाएँ ।अन्तिम मन्त्र में बडे आलंकारिक रूप में वर्णन है कि जैसे वायु चलती है, मन चलता है.पक्षी उडतें हैं वैसे ही जरायु बालक से शीघ्रता से अलग हो जाए —वशट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूतावर्यमा होता कृणोतु वेधाः।    सिस्रतां नार्यतप्रजाता वि पर्वाणि जिहतां सूतवा ।।अवे.1.11.1.चतस्रो दिवःप्रदिशश्चतस्रो भूम्या उत। देवा गर्भं समैरयन् तं व्यूर्णुवन्तु सूतवे ।।अवे.1.11.2.

सूषा व्यूद्मर्णोतु वि योनिं हायमामसि ।       श्रथया सूषणे त्वमव त्वं विष्कले सृज।।अवे.1.11.3.  यथा वातो यथा मनो यथा पतन्ति पक्षिणः।  एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुणा पताव जरायु पद्यताम् ।।अवे.1.11.6।

इस तरह से हम कह सकते हैं कि वैदिक काल, जो एक लम्बा काल रहा है, नितान्त अंधकार युग नहीं था, ना ही यूरोपीय इतिहास के समान कबीलों के आपसी संघर्ष का था। आस काल में इस उपद्वीप में राज्य, समाज, आदी की परिकल्पना साकार हो गई थी। सामाजिक जीवन सहज होने लगा था। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त से लोक की परिकल्पना भी स्पष्ट होती है। यह नहीं कहा जा सकता कि इस भू भाग में युद्ध या अशान्ति नहीं थी, क्यों कि ऋग्वेद में अनेक सूक्त युद्ध सम्बन्धी ही है। अथर्ववेद में तो दुन्दुभि सूक्त भी है। लेकिन लोगो को शान्ति भाईचारे का अर्थ समझ में आने लगा था, और वे अपने आसपास से ऊपर उठ कर प्रकृति, सृष्टि और अध्यात्म के बारे में भी चिन्तन करने लगे थे, साथ ही साथ जीवनोपयोगी वैज्ञानिक उपकरण भी बनाने लगे थे।